इंसानियत के दो पाठ…खुशदीप

पहला पाठ…

वैभव होनहार छात्र होने के नाते प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थान में दाखिला पा गया…कुछ महीने बिताने के बाद संस्थान के एक प्रोफेसर ने छात्रों की जनरल नॉलेज का टेस्ट लिया…वैभव ने सभी प्रश्नों का खटाखट जवाब दे दिया…बस आखिरी सवाल पर वो अटक गया…सवाल था…इंस्टीट्यूट के स्वीपर का क्या नाम है…वैभव ने उस सवाल को छोड़कर अपना पर्चा जमा करा दिया…तभी एक और छात्र ने प्रोफेसर से पूछा कि आखिरी सवाल के भी क्या अंक दिए जाएंगे…प्रोफेसर ने कहा…निश्चित रूप से दिए जाएंगे…आप ज़िंदगी में कई लोगों से मिलोगे…उन सब की कुछ न अहमियत ज़रूर होगी…वो भी ध्यान के क़ाबिल है…चाहे वो हल्की सी मुस्कान हो या सिर्फ आपका ये पूछना कि कैसे हो…उस दिन के बाद वैभव वो पाठ कभी नहीं भूला…ज़िंदगी भर उसे याद रहा कि उसके संस्थान के स्वीपर का नाम रघु था…

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दूसरा पाठ…

26 जुलाई 2005 की रात

मुंबई में ऐसी घनघोर बारिश कि सब कुछ अपने साथ ले जाने के लिए बेताब…एक बुज़ुर्ग आदमी सड़क के बीचोबीच खड़ा था…घुटनों तक पानी…बुज़ुर्ग की कार स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी…लेकिन चेहरे से लग रहा था कि बुज़ुर्ग को कहीं जाने की जल्दी थी…उसने लोगों से मदद के लिए हाथ हिलाना शुरू किया…लेकिन आफ़त की बरसात में कौन बुज़ुर्ग की सुनता…बुज़ुर्ग की उम्मीद टूटने ही वाली थी कि एक नौजवान वहां आकर रुका…उसने पहले बुज़ुर्ग की कार को धकेल कर सुरक्षित जगह तक पहुंचाया…मैकेनिक को फोन किया और फिर बुज़ुर्ग के लिए एक ऑटो रुकवाया…बुज़ुर्ग ने नौजवान का धन्यवाद किया और विदा होने से पहले उसका पता भी एक कागज़ पर नोट कर लिया…

सात दिन बाद उस नौजवान के घर के दरवाज़े की बेल बजी…दरवाज़े पर बड़ा सा पैकेट लिए कूरियरमैन खड़ा था…नौजवान ने आश्चर्य से पैकेट खोला था तो उसमें आई-मैक कंप्यूटर और फिलीप्स म्यूज़िक सिस्टम था…साथ में हाथ से लिखा एक नोट भी था…लिखा था…

उस रात मेरी मदद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया…बारिश ने मुझे और मेरी हिम्मत को पूरी तरह निचोड़ कर रख दिया था…अगर तुम मेरी मदद न करते तो मैं अपनी दम तोड़ती पत्नी तक वक्त रहते नहीं पहुंच पाता…फिर मैं ज़िंदगी में खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाता…गॉड ब्लेस यू माई सन…


डॉ पी के सिंहानिया

(ई-मेल पर आधारित)
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मक्खन बोला ढक्कन से…झल्ला है क्या…खुशदीप

Why post-men are only men ?

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