हो सके तो भूल जाना…खुशदीप

जी हां…अब आपका साथ छोड़ कर जाने का वक्त आ गया है…इस साथ में खट्टे मीठे कई तरह के लम्हे आए…कभी-कभार मौका मिले तो बस हल्की सी याद कर लीजिएगा…यही दस्तूर है…कोई कर भी क्या सकता है…आना-जाना सब कुछ तय होता है…एक सेकंड भी कम या ज़्यादा नहीं…बस अब आप जाने वाले को बीता वक्त समझ कर भूल जाइएगा और आने वाले का दिल खोल कर स्वागत कीजिए…मुझे तो आप लाख कोशिश करें, अब नहीं रोक सकते…वक्त आते ही अंपायर की उंगली उठने का इंतेजार किए बिना ही पवेलियन लौट जाना है…बिना कोई विरोध…नेताओं जैसे बिना कोई नाज़-नखरे दिखाए…विदा तो विदा…हमेशा-हमेशा के लिए…कोई कितना भी बुलाए, मुड़ कर फिर वापस नहीं आ सकता…यही पूर्वजों से सीखा है…

तो जनाब 22 दिन और…फिर बस मैं इतिहास की तारीख हूंगा…मेरा दावा है आप सब नए मेहमान के आने की खुशी में इतने मस्त हो जाएंगे कि मेरी बस हल्की सी याद आ जाए तो वही बड़ी बात होगी…बस यही कोशिश है कि जितने दिन बाकी बचे हैं, आपका ज़्यादा से ज़्यादा प्यार बटोर लूं…

आपका अपना
वर्ष 2009

(हा…हा…हा…मैं पहला शख्स हूंगा जो आपको नववर्ष की शुभकामनाएं दे रहा हूं…वर्ष 2010 आप सब के लिए मंगलमयी हो…ये साल आपके लिए बस खुशियां ही खुशियां लाए, यही प्रार्थना है)

तो साहिबान-मेहरबान जिस तरह मदारी डुगडुगी बजाकर अपने तमाशे के लिए सब को बुलाता है…ठीक वैसे ही मैंने ये सारा नाटक आपको पोस्ट के अंदर लाने के लिए रचा…दरअसल नौ दिसंबर को हिंदी कविता की महान विभूति रघुवीर सहाय जी की 80वीं जयंती थी….बस रघुवीर जी की ही एक कविता आपको पढ़ाना चाहता था…कविता क्या पूरी नसीहत है कि हंसने के वक्त क्या-क्या सावधानी बरतनी चाहिए…वैसे अगर ऊपर नववर्ष की भूमिका नहीं बांधता और पोस्ट का शीर्षक लगा देता…रघुवीर सहाय की एक कविता….तो सिवाय रघुवीर जी के अनन्य भक्तों के शायद ही
कोई और इस पोस्ट के अंदर झांकने के लिए आता…

रघुवीर जी की कविता पर जितनी गहरी पकड़ थी, लघु कथा पर भी उतना ही अधिकार था….पत्रकारिता का ये उनका हुनर ही था कि वो 1969 से 1982 तक दिनमान के संपादक रहे….रघुवीर जी को 1984 में कालजयी रचना…लोग भूल गए हैं…के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड मिला…30 दिसंबर 1990 को रघुवीर जी ने 61 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा…

रघुवीर सहाय 1929-1990

अब आपको और ज़्यादा घुमाए बिना सीधे आता हूं रघुवीर जी की उस कविता पर जिसके लिए मैंने ये पोस्ट लिखी…

हँसो हँसो जल्दी हँसो

हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है


हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी


और तुम मारे जाओगे


ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो


वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं


और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो


सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर


एक अपनापे की हँसी हँसते हो


जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर


तुम बोल सकते हो अपने से


गूंज थमते थमते फिर हँसना


क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे


अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो


उनमें शब्द हैं


कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो


ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे


और ऐसे मौकों पर हँसो


जो कि अनिवार्य हों


जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार


जहां कोई कुछ कर नहीं सकता


उस ग़रीब के सिवाय


और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो


इसके पहले कि वह चले जाएं


उनसे हाथ मिलाते हुए


नज़रें नीची किए


उसको याद दिलाते हुए हँसो


कि तुम कल भी हँसे थे !

—————- रघुवीर सहाय

स्लॉग ओवर

मक्खन के घर एक दिन कॉकरोच का पाउडर बेचने वाला आया…सेल्समैन ने पाउडर की शान में कसीदे पढ़ते हुए मक्खन से कहा कि एक बार इसे ले लेंगे तो हमेशा याद रखेंगे…

मक्खन ने कहा कि नहीं बाबा नहीं उन्हें काकरोच के लिए पाउडर-वाउडर नहीं चाहिए

अब जो ढीठ नहीं वो सेल्समैन ही कहां…उसने फिर मक्खन से कहा…आपको ऐसा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा…एक बार पाउडर लेकर तो देखिए….

इस पर मक्खन का जवाब था…नहीं कह दिया तो मतलब नहीं…हम अपने काकरोच की आदत नहीं बिगाड़ना चाहते…आज पाउडर मिला और कल वो डिओ की डिमांड करने लगे तो…