हिंसा से ‘हीरो’ बनना कितना आसान…खुशदीप

ज़माना वाकई बदल गया है…जेट एज है…पब्लिक में ‘हीरो’ बनना भी इंस्टेंट कॉफी की तरह हो गया है…अब बैलगाड़ी का युग थोड़े ही है कि लोगों के दिलों पर छाप छोड़ने के लिए बरसों तक निस्वार्थ भाव से समाजसेवा की जाए…आज के दौर में चर्चित होना है या ‘हीरो’ बनना है तो रास्ता बहुत आसान है…किसी टारगेट को चुनिए…टारगेट कोई भी ऐसा शख्स हो सकता है जिसके नाम को देश भर में या कम से कम प्रदेश भर में ज़रूर हर कोई जानता हो…अगर वो शख्स नेता है तो काम और भी आसान हो जाता है…हीरो बनने के लिए बस अपने टारगेट के नज़दीक से नज़दीक पहुंचने का जुगाड़ लगाना होता है…

नेता आए दिन समारोह, रैली, उदघाटन आदि में शिरकत करते ही रहते हैं…इसलिए उनके करीब पहुंचने के लिए कोई रॉकेट साइंस नहीं लगानी पड़ती…इस काम के लिए सबसे कारगर तरीका पत्रकार का वेश धारण करना है…श्रोता या पत्रकारों के जमघट का हिस्सा बनकर टारगेट के नज़दीक से नज़दीक पहुंचने का इंतज़ार किया जाता है…जब बिल्कुल आमना सामना हो जाए तो टारगेट की थप्पड़, लात-घूंसों से खातिर कर दी जाती है…थोड़ा फासला अगर टारगेट से बना रहे तो पैरों में पहने जूते-चप्पल किस काम आते हैं…बस उन्हें टारगेट को दे मारने या उसकी तरफ़ बस उछालने की ही ज़रूरत होती है…इस कारनामे को करने वाले शख्स का नाम मिनटों में ही पूरा देश जानने लगता है…अब ज़रा ऐसी ही ‘बहादुरी’ दिखाने वाले ‘सूरमाओं’ के नामों पर गौर कीजिए…

7 अप्रैल 2009
दिल्ली
गृह मंत्री चिदंबरम पर पत्रकार जरनैल सिंह ने जूता उछाला…चिदंबरम 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़े सवाल पर बोल रहे थे…चिदंबरम का जवाब जरनैल को संतुष्ट नहीं कर सका…नतीजा प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही चिदंबरम पर जूता उछाल दिया…इस घटना के टीवी चैनलों के स्क्रीन पर फ्लैश होते ही जरनैल का नाम पूरा देश जानने लगा…उस वक्त तक जरनैल का नाता नंबर एक का दावा करने वाले अखबार दैनिक जागरण से था…


17 अप्रैल 2009
कटनी, मध्य प्रदेश

चुनावी रैली के दौरान बीजेपी के पूर्व कार्यकर्ता पावस अग्रवाल ने लालकृष्ण आडवाणी के ऊपर चप्पल उछाली…ये जनाब इस बात के लिए नाराज़ थे कि पाकिस्तान में जिन्ना के मज़ार पर जाकर आडवाणी ने उन्हें क्यों सेकुलर बताया…


6 जून 2011
दिल्ली
कांग्रेस मुख्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता जर्नादन द्विवेदी पर सुनील कुमार ने जूता उछाला…खुद को जयपुर की नवसंचार पत्रिका का पत्रकार बनाने वाले सुनील कुमार ने रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई से नाराज होकर ये कदम उठाया…


12 अक्टूबर 2011
दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट में टीम अन्ना के सदस्य और वकील प्रशांत भूषण अपने चैम्बर में बैठे एक न्यूज चैनल को इंटरव्यू दे रहे थे…तभी इंदर वर्मा नाम के एक शख्स ने थप्पड़, गुस्से, लातों से प्रशांत भूषण पर हमला बोल दिया…इस हमले के दौरान खुद को भगत सिंह क्रांति सेना से जुड़े बताने वाले तेजिंदर पाल सिंह बग्गा और विष्णु गुप्ता चैम्बर के बाहर खड़े रहे…हमले की वजह प्रशांत भूषण के वाराणसी में कश्मीर पर जनमत-संग्रह की वकालत करना बताया गया….


20 अक्टूबर 2011
लखनऊ
टीम अन्ना के संयोजक अरविंद केजरीवाल पर कांग्रेस सेवा दल के पूर्व सदस्य जितेंद्र पाठक ने लखनऊ में चप्पल उछाली…जितेंद्र का कहना था कि अरविंद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को गुमराह कर रहे हैं…


19 नवंबर 2011
24 नवंबर 2011
दिल्ली

सबसे ताजा मामला हरविंदर सिंह का है…हरविंदर ने पांच दिन के अंतराल में ही पहले पूर्व संचार मंत्री सुखराम की कोर्ट परिसर में ही धुनाई की और फिर कृषि मंत्री शरद पवार को थप्पड़ जड़ा…हरविंदर ने धमकी भी दी कि वो नेताओं पर ऐसे ही हमले करेगा…हरविंदर के मुताबिक भ्रष्टाचार और महंगाई की जड़ ये नेता ही हैं…हरविंदर ने जब पवार को थप्पड़ जड़ा तो वो पत्रकारों के साथ ही खड़ा था…

इन मामलों में एक-दो को छोड़ कर बाकी सब में हमला करने वाले या तो खुद पत्रकार थे या फिर पत्रकारों की आड़ लेकर खड़े थे…ऐसे में अब पत्रकारों के पास जाने से भी नेता कतराने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं…या ये भी हो सकता है उन्हें जूते उतरवा कर ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में जाने दिया जाए…बड़े अखबार या न्यूज चैनलों की बीट वाले पत्रकारों को तो नेता जानते हैं, परेशानी नए या छोटे मीडिया संस्थानों से जुड़े पत्रकारों को होगी…

इन मामलों में जो हमले का शिकार बने, उन्होंने राजनीति के तकाजे के चलते अपना बड़ा दिल दिखाने के लिए हमलावरों को माफ कर दिया…हमला करने वाले पकड़े भी गए तो चंद दिनों में छोड़ दिए गए…कुछ पर केस भी दर्ज नहीं हुआ, कुछ ज़मानत पर रिहा हो गए…शरद पवार पर हमला करने वाला हरविंदर के साथ भी ऐसा हो तो कोई बड़ी बात नहीं…ये आसान सा कष्ट और पूरे देश में नाम होने की उपलब्धि, यही अब ज़्यादा से ज़्यादा सूरमाओं को ऐसी हरकतें करने के लिए प्रेरित कर रहा है…अगर किसी मामले में सख्त सज़ा मिल जाए और मीडिया ऐसी घटनाओं को हाईलाइट करना बंद कर दे, तो इस तरह क़ानून हाथ में लेना खुद-ब-खुद बंद हो जाएगा…

खैर ये तो रही बात मीडिया की…न्यू मीडिया (फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर, ब्लॉग) पर भी ऐसी घटनाओं का महिमामंडन करने वालों की कमी नहीं रही…तर्क दिए गए कि जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है. किसान खुदकुशी कर रहे हैं तो नेताओं को सबक सिखाने का यही सबसे कारगर तरीका है…कुछ ज़िम्मेदार समझे जाने वाली हस्तियों के… बस एक ही मारा…महंगाई न थमी तो हिंसक आंदोलन भड़क जाएंगे…जैसे बयानों ने और आग़ में तेल डालने का काम किया…

नेताओं के चलते जिस लोकतंत्र को हम फेल मानने लगे हैं, ये उसी लोकतंत्र का कमाल है कि हम जो चाहे, जिसे चाहे, जो मर्जी कह सकते हैं…जनरल परसेप्शन के चलते किसी को भी चोर ठहराने में हम एक मिनट की भी देर नहीं लगाते…लेकिन सिर्फ मुंह हिलाने से या लंबी चौड़ी बाते लिखने से तो कोई चोर साबित नहीं किया सकता…इसके लिए पुख्ता सबूतों की भी ज़रूरतों होती है…क्या होते हैं हमारे पास ये सबूत…अमेरिका या यूरोप में भ्रष्टों के लिए कड़ी सज़ा है तो ऐसे लोगों के लिए भी सख्त सज़ा के प्रावधान हैं जो दूसरों पर आरोप लगाने के बाद उन्हें सिद्ध नहीं कर पाते…

लोकतंत्र में नाकारा और भ्रष्ट नेताओं को सबक सिखाने के लिए आज भी सबसे अच्छा इलाज चुनाव ही है…जनता सच्चे मन से जिसे हराने या जिताने की ठान ले तो उसे ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता…न धनबल और न ही बाहुबल…इसलिए अगर नेताओं के मन में डर बैठाना है तो सबसे ज़रूरी है चुनाव सुधारों पर ज़ोर दिया जाए…ऐसा दबाव बनाया जाए कि सियासी पार्टियां भ्रष्ट या दाग़ी लोगों को टिकट देने से पहले सौ बार सोचे…इसके अलावा शिवाजी या भगत सिंह का नाम लेकर जो हिंसा को जायज़ ठहराने का तर्क देते हैं वो सुनी-सुनाई बातें छोड़कर इन महान हस्तियों के दर्शन को पहले अच्छी तरह आत्मसात करें…अहिंसा का हथियार ही बड़े बड़े तानाशाहों को घुटने के बल झुकाने में कामयाब रहा है…इस अहिंसा के मिशन को पलीता लगाने के लिए कहीं से भी छूटी हिंसा की छोटी सी चिंगारी काफ़ी होती है…

उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हैं…जिन से आप नाराज़ हैं, उन्हें इन चुनावों में जमकर सबक सिखाइए…किसने रोका है आपको…देर-सबेर लोकसभा चुनाव भी होंगे..वहां भी देश के गुनहगारों को उनके किए की सज़ा दीजिए…लेकिन प्रार्थना यही है कि विवेक का साथ मत छोडि़ए…हिंसा किसी भी स्वरूप में हो, उसका समर्थन नहीं किया जाना चाहिए…बल्कि उसकी पूरी शक्ति के साथ प्रताड़ना की जानी चाहिए…वरना अगर क़ानून सबने खुद ही हाथ में लेने का रास्ता अपना लिया तो फिर देश के बनाना स्टेट बनने में देर नहीं लगेगी…

अगर बुराइयों या अपराधों के लिए खुद ही लोगों को सबक सिखाना है तो फिर तो हर गांव, गली, कस्बों में कंगारू कोर्ट बना देनी चाहिए, देश में अदालतों या न्यायिक व्यवस्था की ज़रूरत ही क्या है…क्यों इस पर इतना पैसा खर्च किया जा रहा है…

पॉपुलेरिज्म के लिए बयान देना अलग बात है, लेकिन देश के लिए हमारे महापुरुषों के सुझाए अहिंसा, संयम, तप, विवेक, सहनशीलता, शांति, धीरज के वही सिद्धांत कारगर साबित होंगे, जिनका सदियों से दूसरे देश लोहा मानते रहे हैं…मेरा यही निवेदन है, बाक़ी इस स्वतंत्र देश में हर शख्स अपनी स्वतंत्र सोच रखने के लिए स्वतंत्र है…

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राजन
13 years ago

अब इस बात को ज्यादा तूल देने का कोई मतलब नहीं है.अन्ना ने कह तो दिया था कि वो माफी माँगने के लिए तैयार है.

BS Pabla
13 years ago

क्या शहीद भगत सिंह को चुनाव लड़ना चाहिए था?
क्या शहीद भगत सिंह असेंबली में प्रतीकात्मक बम फेकने की बजाय बम से सदस्यों को नहीं मार सकते थे?
क्या अपने 'कारनामे ' की वजह से शहीद भगत सिंह को कथित रूप से आतंकवादी नहीं कहा जाता?
क्या उस एक प्रतीक स्वरूप बम फेकने वाली 'हिंसा' की मूल भावना को झुठलाया जा सकता है?
क्या शहीद भगत सिंह के उस 'सनकीपन' का कोई प्रभाव नहीं था स्वतंत्रता आंदोलन में?

सुभाष चन्द्र बोस चुनाव लड़ कर अध्यक्ष बने थे. क्या हुआ फिर?

क्या माननीय, संसद, विधानासभायों में ही एक दूसरे पर घूंसे, चप्पल, जूते, कुर्सियां, माइक, पर्चे, नोटों की गड्डियां, जुमले, फाईलें नहीं फेंकते?

क्या 'बड़ा पेड़ गिरने पर धरती कांपती ही है' का बयान आग में तेल डालने जैसा नहीं होता?

क्यों उत्तर भारतीय ही ऎसी 'बहादुरी' दिखाते हैं?

क्या किसी के भी द्वारा भेष बदल कर अपना काम कर जाना जिम्मेदार सुरक्षा एजेंसियों की नाकामयाबी नहीं है?

क्या देश में अदालतों या न्यायिक व्यवस्था में इतना पैसा खर्च किया जा रहा है कि न्यायपालिका अपना काम सुचारू रूप से कर सके?

क्या पॉपुलेरिज्म के लिए राजनैतिज्ञों द्वारा ऐसे बयान नहीं दिए जाते जो कभी भी पूरे नहीं होते?

क्या महापुरुषों के सुझाए अहिंसा, संयम, तप, विवेक, सहनशीलता, शांति, धीरज के सिद्धांत केवल प्रजा के लिए है, राजा के लिए नहीं?

किस देश में अहिंसा के हथियार से बड़े बड़े तानाशाहों को घुटने के बल झुकाया जा चुका है?

क्या राजसत्ता ही क़ानून को ठेंगे पर रख सकती है, प्रजा नहीं?

जब स्वतंत्र देश में हर शख्स अपनी स्वतंत्र सोच रखने के लिए स्वतंत्र है तो उसे कार्यरूप में परिवर्तित कौन करेगा?…

यथा राजा तथा प्रजा 🙂

निर्मला कपिला

आज कल ब्लागिन्ग तो कर नही पा रही मगर मुझे बताओ कि मै सुर्खियों मे रहने के लिये किसे थप्प्ड मारूँ? शुभकामनायें।

विवेक अवस्थी

हिंसा चाहे शारीरिक या वैचारिक निंदनीय है ,लेकिन खेद का विषय है कि जितने पुरजोर तरीके से इसका बहिष्कार होना चाहिए वो नहीं होता,हम हिंसा को भी अलग-अलग खेमों में बाँट कर खुद बँट जाते हैं .
बालासाहब से लेकर राज ठाकरे मायावती से लेकर दिविजय ,उमाभारती …..कभी एक सुर में काश इस हिंसा (वैचारिक और शारीरिक ) का विरोध करें तो ज्यादा सार्थक होगा |

DR. ANWER JAMAL
13 years ago

थप्पड़ की प्रशंसा निंदनीय है
जो लोग आज शरद पवार के थप्पड़ मारने और उन्हें कृपाण दिखाने वाले सरदार हरविंदर सिंह की प्रशंसा कर रहे हैं,
क्या वे लोग तब भी ऐसी ही प्रशंसा करेंगे जबकि उनकी पार्टी के लीडर के थप्पड़ मारा जाएगा ?
हम शरद पवार को कभी पसंद नहीं करते लेकिन नेताओं के साथ पब्लिक मारपीट करे, इसकी तारीफ़ हम कभी भी नहीं कर सकते। इस तरह कोई सुधार नहीं होता बल्कि केवल अराजकता ही फैलती है। अराजक तत्वों की तारीफ़ करना भी अराजकता को फैलने में मदद करना ही है, जो कि सरासर ग़लत है।
सज़ा देने का अधिकार कोर्ट को है।
कोर्ट का अधिकार लोग अपने हाथ में ले लेंगे तो फिर अराजकता फैलेगी ही और हुआ भी यही शरद पवार के प्रशंसक ने शुक्रवार को हरविंदर सिंह को थप्पड़ मार दिया है।

Udan Tashtari
13 years ago

न्यूसेन्स वेल्यू की वेल्यू ज्यादा ही होती है….मगर उपयुक्त नहीं है…

दिनेशराय द्विवेदी

बहुत पुराना सूत्र है ये। कालेज के जमाने में अक्सर छात्र नेता किसी न किसी सरकारी अधिकारी को मारपीट कर ही बनते थे।

Rakesh Kumar
13 years ago

पॉपुलेरिज्म के लिए बयान देना अलग बात है, लेकिन देश के लिए हमारे महापुरुषों के सुझाए अहिंसा, संयम, तप, विवेक, सहनशीलता, शांति, धीरज के वही सिद्धांत कारगर साबित होंगे, जिनका सदियों से दूसरे देश लोहा मानते रहे हैं…मेरा यही निवेदन है, बाक़ी इस स्वतंत्र देश में हर शख्स अपनी स्वतंत्र सोच रखने के लिए स्वतंत्र है…

आप सही कह रहे है.परन्तु बहुत बुरा हाल है आजकल , खुशदीप भाई

Atul Shrivastava
13 years ago

हिंसा का रास्‍ता कतई सही नहीं लेकिन क्‍या करें जब नेता सारी हदें पार करने लगें और जनता का सब्र जवाब देने लगे…..
121 करोड लोग… एक का ही मुंडा सरका….. कल्‍पना कीजिए यदि देश की सारी जनता का मुंडा सरक गया तो जो चांटा लगेगा, उसकी आवाज कितनी भयावह होगी…..????
आपकी चुनाव सुधार की बातों से पूरी तरह सहमत। मतपत्रों में जनता को बेकार और कम बेकार में से चुनना पडता है, जिस दिन मतपत्र में 'इनमें से कोई नहीं' का कालम जुड जाएगा, यकीन रखें सबसे ज्‍यादा वोट इसी कालम पर पडेंगे……

anshumala
13 years ago

@ बस एक ही मारा…महंगाई न थमी तो हिंसक आंदोलन भड़क जाएंगे…जैसे बयानों ने और आग़ में तेल डालने का काम किया…
इस कड़ी में एक और बयान था जिसे आप भूल गये या भुला दिया पता नहीं
" जब मै उत्तर प्रदेश आता हूं तो मुझे बहुत ही गुस्सा आता है मुझे लगता है की आप आदमी को गुस्सा क्यों नहीं आता है "
लो जी आ गया आप आदमी को गुस्सा और कुछ ना कर पाने की खीज में कर दिया एक " बेमतलब " का काम अब आम आदमी के गुस्से पर गुस्सा आ रहा है ये तो गलत है जी | बहुत सारे लोग उनके थप्पड़ पर उन्हें हीरो बना रहे है क्योकि बेचारा आम आदमी खुद तो कुछ कर नहीं पा रहा है वोट देने में भी अभी समय है तब तक आम आदमी की जीवन नरक बनाने वालो का दिमाग कैसे ठिकाने लगाया जाये तो जोहम करना तो चाहे पर कर ना पाये वो कोई और कर दे कारण जो भी हो तो दिल से एक सकून भरी बात तो आती ही है ना " ठीक किया " | मै भी मानती हूं की थप्पड़ मारना या इस तरह की हरकत करना सही नहीं है , क्योकि इससे कोई फायदा ही नहीं होने वाला है इतने जूते चलने के बाद आन्दोलन के बाद मीडिया द्वारा जनता से सीधे गलिया खाने के बाद भी सरकार , एक भी नेता मंत्री नहीं सुधरा तो ये सब करने से कोई फायदा नहीं है हद तो तब है जब नेता जी सभी को ये बता रहे है की जी थप्पड़ तो पड़ा ही नहीं मीडिया वालो ने तो पहले ही हटा दिया था उसे | ( जैसे बचपन में हम लोग किया करते थे मारने वाले को चिढाने के लिए की नहीं लगा ले ले नहीं लगा ले ले ) हा भाई आज २६/ ११ भी है तीन साल बाद भी किसी को हम लोगों की सुरक्षा की कोई याद है सरकार को , सरकार तो बैठ का कसाब का हैप्पी बड्डे मना रही है आज |

केवल राम
13 years ago

युवा वर्ग से ऐसी अपेक्षा करना कहाँ तक सही है …..और अगर युवा ही ऐसा करने लगे तो फिर क्या किया जा सकता है …..! आपकी चिंता बाजिब है …..!

Rahul Singh
13 years ago

स्‍वतंत्रता मनमानी न बने, कहा जाता है कि आप हवा में घूंसे चलाने के लिए स्‍वतंत्र हैं, लेकिन आपकी सीमा वहां समाप्‍त हो जाती है, जहां किसी की नाक शुरू होती है.

देवेन्द्र पाण्डेय

सजा इतनी कम मिलती है कि अपराध करके भी लोग मजा लेते हैं। जो कहते हैं कि हम गांधी के अनुयायी हैं कम से कम उन्हें तो इसका विरोध करना ही चाहिए। लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है।
बढ़िया लगी यह पोस्ट।

Shah Nawaz
13 years ago

वैसे जिस तरह अन्ना हजारे ने पहली प्रतिक्रिया 'केवल एक ही' कह कर दी, उसपर मुझे बिलकुल भी हैरानी नहीं हुई…

एक दिन में महात्मा गाँधी बनने की चाहत रखने वाले जाने-अनजाने ऐसी गलतियाँ कर ही देते हैं…

Shah Nawaz
13 years ago

इस तरह की हिंसा चाहे किसी भी पार्टी के नेता के खिलाफ की जाए, लोकतंत्र की भावना के लिए ज़हर समान है… ऐसी हरकतों का समर्थन करने वाले भी हिंसा के समर्थक तथा लोकतंत्र के विरोधी ही कहलाए जाएँगे…

प्रवीण पाण्डेय

सर्वाधिक आसान तरीका है।

डॉ टी एस दराल

हमलावर या तो पत्रकार होते हैं या पत्रकार के भेष में । यह तो सही कहा ।
लेकिन इन घटनाओं को चटकारे लेकर परोसने का काम भी मिडिया बखूबी कर रहा है । एक दृश्य को हज़ार बार ऐसे दिखाते हैं जैसा फिल्मों में भी नहीं दिखाते ।

ब्लोगर्स भी भेड़ चाल चलते हुए एक सुर में सुर मिलाना शुरू कर दते हैं । कल ही मैंने एक टिपण्णी में कहा था कि क्या इस तरह एक विक्षिप्त द्वरा नेताओं को थप्पड़ मारने से हम कुछ हासिल कर लेंगे ?

इस तरह की घटनाएँ एक सभ्य समाज के लिए उचित नहीं । इन्हें बढ़ावा न दिया जाये तो अच्छा है ।

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