समीर जी की किताब- इतना पहले कभी नहीं हंसा…खुशदीप

पिछली पोस्ट से आगे…

समीर जी की उपन्यासिका देख लूँ, तो चलूँ पर कुछ लिखूं, इससे पहले ही बता दूं कि इस किताब में एक अंश पढ़कर इतना हंसा, इतना हंसा कि बस में आस-पास के लोग भी मुझे शक से देखने लगे…शायद मन ही मन सोचने भी लगे हों…देखने में तो ठीक-ठाक लगता है, बेचारा बस…

उपन्यासिका के फाइनर पाइंट्स पर भी कल आऊंगा लेकिन आज पहले उसी अंश को पढ़ कर लीजिए, जिसे पढ़कर और समीर जी को उस हाल में सोच-सोच कर मेरी हंसी मेरठ तक बंद नहीं हुई..

कुछ साल पहले भारत से कनाडा आते वक्त फ्रेंकफ्रर्ट, जर्मनी में एक दिन के लिए रुक गया था…सोचा, ज़रा शहर समझा जाए और बस, इसी उद्देश्य से वहां की सबवे (मेट्रो) का डे पास खरीद कर रवाना हुए…जो भी स्टेशन आए, मैं और मेरी पत्नी उतरें, आस-पास घूमें…वहां म्यूज़ियम और दर्शनीय स्थल देखें और लोगों से बातचीत करें, ट्रेन पकड़ें और आगे…यह एक अलग ढंग से घूम रहे थे तो मज़ा बहुत आ रहा था…जर्मन न आने की वजह से बस कुछ तकलीफ़ हो रही थी, मगर काम चल रहा था…

इसी कड़ी में एक स्टेशन पर उतरे…बाहर निकलते ही मन प्रसन्न हो गया…एकदम उत्सव सा माहौल…स्त्री-पुरुष सभी नाच रहे थे रंग बिरंगी पोशाक में…ज़ोरों से मस्त संगीत बज रहा था..संगीत की तो भाषा होती नहीं वो तो एहसास करने वाली चीज़ है…इतना बेहतरीन संगीत कि खुद ब खुद आप थिरकने लगें…खूब बीयर वगैरह पी जा रही थी…जगह जगह रंग बिरंगे गुब्बारे, झंडे और बैनर…क्या पता क्या लिखा था, उन पर जर्मन में…शायद होली मुबारक टाइप उनके त्योहार का नाम हो…

एक बात जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ कि महिलाएं एक अलग समूह बना कर नाच रही थीं और पुरुष अलग…न रामलीला जैसे रस्से से बंधा अलग एरिया केवल महिलाओं के लिए और न कोई एनाउंसमेंट कि माताओं, बहनों की अलग व्यवस्था बाईं और वाले हिस्से में हैं…कृपया कोई पुरुष वहां न जाए और न कोई रोकने टोकने वाला…बस सब स्वत:…


सोचने लगा कि कितने सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं दुनिया के इस हिस्से में भी..महिलाओं के नाचने और उत्सव मनाने की अलग से व्यवस्था…इतनी बीयर चल रही है फिर भी मजाल कि कोई दूसरे पाले में चला जाए नाचते हुए…पत्नी महिलाओं की तरफ जा कर एक तरफ बैन्च पर बैठ गई और हमने बीयर का गिलास उठाया और लगे पुरुष भीड़ के साथ-साथ झूम कर नाचने…अम्मा बताती थी मैं बचपन में भी मोहल्ले की किसी भी बरात में जाकर नाच देता था…बड़े होकर नाचने का सिलसिला आज भी जारी है…वो ही शौक कुलाँचे मार रहा होगा…


चारों तरफ नज़र दौड़ाई नाचते नाचते तो देखा ढेरों टीवी चैनल वाले, अखबार वाले अपना अपना बैनर कैमरा और संवाददाताओं के साथ इस उत्सव की कवरेज कर रहे थे…लगता है जर्मनी के होली टाइप किसी उत्सव में आ गए हैं…टीवी वालों को देख उत्साह दुगना हो गया…कमर मटकाने की और झूमने की गति खुद ब खुद बढ़ गई…झनझना कर लगे नाचने…दो एक गिलास बीयर और सटक गए…


वहीं बीयर स्टॉल के पास एक झंडा भी मिल गया जो बहुत लोग लिए थे…हमने भी उसे उठा लिया…फिर तो क्या था, झंडा लेकर नाचे…इतनी भीड़ में अकेला भारतीय…प्रेस वाले नज़दीक चले आए…टीवी वालों ने पास से कवर किया…प्रेस वालों ने तो नाम भी पूछा और हमने भी असल बात दबा कर बता दिया कि इसी उत्सव के लिए भारत से चले आ रहे हैं और सबको शुभकामनाएं दीं…


खूब फोटो खिंची…मज़ा ही आ गया…खूब रंग बरसाए गए…कईयों ने हमारे गाल पर गुलाबी, हरा रंग भी लगाया, गुब्बारे उड़ाए गए, फव्वारे छोड़े गए और हम भीग-भीग कर नाचे…कुल मिलाकर पूरी तल्लीनता से नाचे और उत्सव मनाया गया…भीड़ बढ़ती जा रही थी…मगर व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं…स्त्रियां अलग और पुरुष अलग…कभी ग़लती से नज़र टकरा भी जाए तो तुरंत नीचे…कितने ऊंचे संस्कार हैं…मन श्रद्धा से भर भर आए…पूरा सम्मान, स्त्री की नज़र में पुरुष का और पुरुष की नज़र में स्त्री का…एकदम धार्मिक माहौल…जैसे कोई धार्मिक उत्सव हो…शायद वही होगा…थोड़ी देर में ही भीड़ अच्छी खासी हो गई..प्रेस प्रशासन सब मुस्तैद…जबकि कोई ज़रूरत नहीं थी पुलिस की, क्यूंकि लोग यूं ही इतने संस्कारी हैं, मगर फिर भी…अपने यहां तो छेड़े जाने की गारंटी रहती है, फिर भी पुलिस वाला ऐन मौके पर गुटका खाने निकल लेता है, मगर यहां एकदम मुस्तैद..


धीरे-धीरे भीड़ ने जुलूस की शक्ल ले ली…मगर महिलाएं अलग, पुरुष अलग…वाह…निकल पड़ा मुंह से और सब निकल पड़े…पता चला कि अब ये जुलूस शहर के सारे मुख्य मार्गों पर घूमेगा…जगह जगह ड्रिंक्स और खाना सर्व होगा…मज़ा ही आ जाएगा…हम भी इसी बहाने नाचते गाते शहर घूम लेंगे…खाना पीना बोनस और प्रेस कवरेज क्या कहने…पूरे विश्व में दिखाए जाएंगे…


कई नए लोग जुड़ गए…नए नए बैनर झंडे निकल आए…अबकी अंग्रेज़ी वाले भी लग लिए…हम भी एक वही पुराना वाला जर्मन झंडा उठाए थे तो सोचा किसी अंग्रेज़ी से बदल लें…इसलिए पहुंच लिए झंडा बंटने वाली जगह…अंग्रेज़ी झंडा मिल गया…लेकर लगे नाचने…फिर सोचा कि पढ़ लें तो कम से कम कोई प्रेस वाला पूछेगा तो बता तो पाएंगे…


पढ़ा !!!!!!!

अब काटो तो ख़ून नहीं…तुरंत मुंह छुपा कर भागे…पत्नी को साथ लिया और ट्रेन से वापस एयरपोर्ट…मगर अब क्या होना था टीवी और अख़बार ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कवर कर ही लिया…दरअसल अंग्रेज़ी के जो बैनर और झंडे पढ़े तो पता चला कि अंतरराष्ट्रीय समलैंगिक महोत्सव मनाया जा रहा था जिसे वो रेनबो परेड कहते हैं और वो जो झंडा मेरे हाथ में था, वो कह रहा था कि मुझे समलैंगिक होने का गर्व है…क्या बताएं, कैसा कैसा लगने लगा..


कनाडा के जहाज़ में बैठकर बस ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहे कि कोई पहचान वाला इस कवरेज को न देखे या पढ़े…सोचिए, ऐसा भी होता है कि सीएनएन और बीबीसी टाइप चैनल आपको कवर करें और आप मनाएं कि कोई पहचान वाला आपको देखे न...

क्रमश:

देख लूँ तो चलूँ (उपन्यासिका)
समीर लाल ‘समीर’
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन
पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्पलेक्स बेसमेंट
बस स्टैंड, सीहोर-466001 (म.प्र.)

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Sandeep Yadav
5 years ago

इस पुस्‍तक में इतने प्रसंग ऐसे हैं जिसमें इतनी हँसी आती है Rajput Status

rajput status
6 years ago

aaap ka ye anubhav yaad rahe ga.

visitor:-Rajput status

Udan Tashtari
10 years ago

आज फिर 🙂

शरद कोकास

क़ुल मिलाकर यह सीख मिली कि जब भी किसी उत्सव / अन्दोलन / आदि मे शामिल हो तो बैनर जरुर पढ लें न पढ सकें तो किसी से पढवा लें । हमारे देश की निरक्षर जनता के लिये भी यह ज़रूरी है ।

Unknown
14 years ago

khus deep ji film ka traler jab aaisa hai tab film kaisee hogi pata chal gaya —
ham black main ticket kharidane ko tayaar hai-
ticket keha par milagee —-

रेखा श्रीवास्तव

वाकई समीर जी का ये अनुभव हमको तो हंसाने वाला ही है , वह बात और है कि उन्होंने उस समय कैसा अनुभव किया होगा?

नीरज गोस्वामी

ये दृष्टान्त समीर जी ने अपने ब्लॉग पर भी लिखा था…बल्कि पूरी किताब के दृष्टांत उनके ब्लॉग पर मौजूद हैं जिन्हें पढ़ कर तब भी उतनी ही हंसी आई जितनी अब पढ़ कर आ रही है…इसे कहते हैं लेखन की असली कला.
नीरज

बेनामी
बेनामी
14 years ago

किताब की प्राप्ति हो गयी है… कल से अध्ययन का मुहूरत निकला है… लेकिन ट्रेलर देख कर फिल्म का एहसास अभी से हो गया है… 🙂

संगीता पुरी

अपने ब्‍लॉग में पोस्‍ट कर चुके हैं वे .. मैं पढ चुकी हूं पहले भी .. सचमुच मेरी भी हंसी नहीं रूक रही थी !!

संगीता स्वरुप ( गीत )

🙂 🙂 🙂 🙂 🙂 🙂 सच्ची हंसी नहीं रुक रही 🙂
पुस्तक पढ़ने की तीव्र उत्कंठा

अजित गुप्ता का कोना

इस पुस्‍तक में इतने प्रसंग ऐसे हैं जिसमें इतनी हँसी आती है कि उस प्रसंग को याद करते ही हँसी छूटती है। सचमुच में पुस्‍तक अच्‍छी है।

Rakesh Kumar
14 years ago

Kushdeep bhai, kehte hi ki yadi man me chahh ho aur sachchi ho to parmaatma ayashya poorn karte
hai.Kahin aisa to nahi ho gaya Sameer Bhai ke saath.

शिवम् मिश्रा

अरे खुशदीप भाई, यह नहीं चलेगा … बंद कर दीजिये … आप सब सस्पेंस खत्म किये दे रहे है … वैसे आप कहाँ थे जब समीर भाई के साथ यह घटना घट रही थी … उस मेले में एक एक्सक्लुसिव इंटरव्यू तो मिल ही जाता आपको भी !

समीर दादा का भी जवाब नहीं … जय हो … जय हो … " मुझे समलैंगिक होने का गर्व है…क्या बताएं, कैसा कैसा लगने लगा.." हा हा हा … बड़ी मुश्किल से लिख पा रहा हूँ ! हँसी रुक ही नहीं रही !

anshumala
14 years ago

आप के पहले ही हंसने वाली बात लिख देने से बात का अंदाजा पहले ही हो जाता है | वाकई मजेदार किस्सा |

vandana gupta
14 years ago

इसे कहते है पराई आग मे हाथ जलाना……………सच मे हंसी नही रुक रही और यही सोच रही हूं हमारे देश के मुख्य चैनल पर आना होता तो क्या होता?

सञ्जय झा
14 years ago

ab balak baron ki 'kamjori' par thttha to sakta nahi muh ghuma ke 'muskiya' lete hain……

pranam.

Satish Chandra Satyarthi

हाहाहाहा… घटना तो मजेदार रही और उससे भी मजेदार रहा उसका वर्णन….. मजा आ गया.. विदेशी भाषा न जानने पर कई बार ऐसी रोचक घटनाएं घट जाती हैं… 🙂

डॉ टी एस दराल

ओह तो टी वी पर वो समीर लाल जी थे ! दरअसल आप वाला चैनल कुछ साफ़ नहीं आ रहा था इसलिए चेहरा साफ़ नहीं देख पाए ।
हा हा हा ! यार जल्दे से ये उपन्न्यासिका हमें भी दो पढने के लिए ।

बढ़िया संस्मरण ।

दिनेशराय द्विवेदी

ये समीर जी का अमर अनुभव है। कई पीढ़ियों तक याद रहेगा।

राजीव तनेजा

उपन्यास के इस सीन को जब मैं मेट्रो में बैठा हुआ पढ़ रहा था तब अनायास ही एकदम मेरी हँसी छूट गयी..जिसकी वजह से सामने बैठे हुए और आजू-बाजू बैठे हुए लोगों की)जिनमें कुछ महिलाएं भी थी)नज़रें कौतुहल से एकदम मेरी तरफ मुड गई…अपनी हँसी को छुपाने के लिए लाख-आड़े-तिरछे मुँह बनाए…मुँह को रुमाल से भी ढकने का असफल प्रयास किया लेकिन सब नाकाम…पुन: किताब में ध्यान लगाने की कोशिश की लेकिन पढ़ा किस कमबख्त से जा रहा था?…आखिर में थक-हार के किताब को वापिस बैग में डालना पड़ा …

रवीन्द्र प्रभात

मजा आ गया पढ़कर,लिखना प्रारम्भ कर दिया है मैंने भी ..

Udan Tashtari
14 years ago

🙂 आज भी याद आता है वो दिन….तो क्या कहें..कैसा कैसा लगता है!! 🙂

Sushil Bakliwal
14 years ago

मस्त संस्मरण…

राज भाटिय़ा

मस्त जी

Satish Saxena
14 years ago

फोटो चाहिए….! मगर समीर भाई को देख कोई डरा नहीं वहां ??

Sunil Kumar
14 years ago

इसे कहते है मीडिया क्रेजी की कीमत, वाह वाह .

भारतीय नागरिक - Indian Citizen

क्या बात है, वो वाली फोटू लगाई या नहीं लगाई समीर जी ने.. मेरी तो हंसी ही नहीं रुक रही इसे पढ़कर…

प्रवीण पाण्डेय

वाह, एक नया प्रवाह है इसमें।

बरेली से
14 years ago

वैसे मजा आ गया इसे पढ़कर..

बरेली से
14 years ago

खुशदीप जी, मैंने भी लिखना प्रारम्भ कर दिया है..बरेली से… समीर जी की पुस्तक खरीदने की उत्कंठा जाग्रत होने लगी है…

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