अच्छा लगा कि सबने महावीर और जानकी के हवाले से समाज के एक अपवाद पर शिद्दत के साथ विमर्श में हिस्सा लिया…बिना किसी कटुता सबने खुल कर अपनी बात कही…लेकिन मेरी इस चर्चा को शुरू करने के पीछे ये मंशा कतई नहीं थी कि 22 साल के महावीर और 60 साल की जानकी देवी के पति-पत्नी बनने को हाईलाइट करूं…ये शादी बेमेल है, ये मैं भी मानता हूं…सेक्स के नज़रिए से तो ये शादी हर्गिज कामयाब नहीं हो सकती..ये मैं भी जानता हूं…लेकिन यहां सिर्फ एक व्यवस्था को शादी का नाम दिया गया है…यहां शादी की सफलता की बात करना ही बेमानी है…लेकिन मेरा ये सवाल उठाने का मकसद उम्र के फर्क को दर्शाना नहीं था…मेरा आग्रह था कि बूढ़ी और विधवा मां को घर में उसके बेटों ने प्रताड़ित किया…काम न करने पर खाने तक को मोहताज कर दिया…घर से बाहर निकाल फेंका…ऐसे में जानकी ने महावीर में सहारा ढूंढ लिया तो क्या गलत किया…
अब मैं आपसे पूछता हूं कि हमारे समाज में कोई घऱ वालों की उपेक्षा और तिरस्कार के चलते भूखा मर रहा होता है तो हम उसकी क्या मदद करते हैं…कहीं कहीं ये डर भी हमें मदद करने से रोक सकता है कि दूसरे के लफड़े में हम क्यों टांग अड़ाएं…फिर पीड़ित के घर वालों से दुश्मनी मोल लेने का खतरा अलग…पीड़ित के घर वाले तो झूठे अंहकार के चलते चाहेंगे कि बुजुर्ग घर में पीसते रहें और उफ भी न करें…मेरा कहना है कि ऐसे समाज को ही बदल डालो…
हमारे समाज में ऐसे दुबले-कुचले भी है जब भूख हद से बाहर हो जाती है तो वो धर्म परिवर्तन तक कर लेते हैं…ये सच है कि जो धर्म परिवर्तन कराता है, उसका अपना स्वार्थ होता है…और जब जिंदा रहने के लिए कोई अपना धर्म तक छोड़ने के लिए मजबूर हो जाता है…तो उसके समाज को उसकी याद आती है…नैतिकता की दुहाई देनी शुरू हो जाती है…यही सुध तब क्यों नहीं आती जब वो भूख से मर रहा होता है…
खैर ये पहलू चर्चा को अलग ट्रैक पर ले जा सकता है…आता हूं फिर उसी मुद्दे पर…परिवेश के मुद्दे पर…जो महावीर और जानकी देवी की कहानी का असली खलनायक है…कल मैंने मिडिल क्लास के परिवेश पर बनी फिल्म का हवाला दिया था…मेरी पिछली पोस्ट पर राज भाटिया जी की ये टिप्पणी भी आई कि कहीं चर्चा का रुख फिल्मों की तरफ न मुड़ जाए…राज जी, मैं यहां विषयवस्तु से जुड़ी फिल्मों के जरिए ही अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा हूं…जिस फिल्म का भी मैं उल्लेख कर रहा हूं…वो उसके परिवेश को हाईलाइट करने के लिए ही कर रहा हूं…साथ ही ये बताने का प्रयास भी है कि उम्र के फर्क के बावजूद नारी और पुरुष का नजदीक आना हर परिवेश में देखा जा सकता है…
तो आज राजसी ठाठबाट और विदेश के मिलेजुले हाईक्लास परिवेश पर बनी फिल्म लम्हे की कहानी का जिक्र करता हूं…1991 में आई लम्हे को यश चोपड़ा ने अपने प्रोडक्शन में ही निर्देशित किया था…कहानी का सार इस प्रकार है…
वीरेन (अनिल कपूर) लंदन का युवा व्यवसायी है…लेकिन उसकी जड़े राजस्थान की राजपूतानी आन-बान-शान मे हैं..वो अपनी गवर्नेस दाईजा (वहीदा रहमान) के साथ राजस्थान आता है तो उसकी मुलाकात उम्र में बड़ी पल्लवी (श्रीदेवी) से होती है…उम्र का फर्क ये ज़्यादा नहीं है…वीरेन मन ही मन पल्लवी को चाहने लगता है…लेकिन पल्लवी की चाहत वीरेन नहीं कोई और होता है…वीरेन को ये पता नहीं होता…लेकिन अचानक पल्लवी के पिता की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो जाती है…वहीं पहली बार वीरेन का सामना विनोद से होता है…विनोद यानी पल्लवी की चाहत…मरने से पहले पल्लवी का पिता वीरेन से पल्लवी और विनोद की शादी कराने का वादा लेता है…वीरेन का दिल टूट चुका होता है लेकिन वो पल्लवी और विनोद की शादी कराने के बाद लंदन लौट जाता है…एक साल बाद पल्लवी और विनोद की सड़क हादसे में मौत हो जाती है…लेकिन मरने से पहले पल्लवी एक बेटी को जन्म दे जाती है…इस बेटी का नाम पूजा रखा जाता है…पूजा हर वक्त दाईजा से वीरेन की बातें सुन-सुन कर ही बड़ी होती है…उसकी शक्ल भी मां (पल्लवी)से हूबहू मिलती है…वीरेन कई साल बाद राजस्थान आता है तो पूजा को देख कर हैरान रह जाता है…इतने सालों में भी वीरेन पल्लवी की याद को दिल से जुदा नहीं कर पाया होता…पूजा में ही पल्लवी का चेहरा देखकर वीरेन परेशान हो जाता है…उधर पूजा की नजर में वीरेन उसके कुंवर साहब है जिसके सपने वो बचपन से जागते-उठते देखती आई है…वीरेन को बूढ़ी दाईजा की हालत को देखते हुए उन्हें लंदन ले जाने का फैसला करना पड़ता है…दाईजा को पूजा को भी साथ ले जाना पड़ता है…लंदन में वीरेन की एक दोस्त है अनीता…पूजा लंदन में भी हर वक्त वीरेन को कुंवर साहब, कुंवर साहब कहते कहते उसके पीछे पड़ी रहती है…अनीता को पूजा का ये व्यवहार पसंद नहीं आता…लंदन में ही वीरेन के कमरे में पल्लवी की पेंटिग देखकर पूजा को गलतफहमी हो जाती है कि वीरेन भी उसे पसंद करता है….एक बार अनीता की पूजा से तकरार भी हो जाती है…अनीता पूजा से पूछती है कि वो किस रिश्ते से वीरेन पर इतना हक जताती है…वीरेन उसका लगता ही क्या है…इसका जवाब पूजा ये कह कर देती है कि जैसे वीरेन उसका कुछ नहीं लगता वैसे ही वो अनीता का भी कुछ नहीं लगता…वीरेन पूजा की ये हरकते देखकर अनीता से शादी करने का फैसला कर लेता है…वीरेन पूजा से भी साफ कह देता है कि वो उससे नहीं उसकी मां पल्लवी से प्यार करता था…वीरेन दाईजा से भी कहता है कि राजस्थान जाकर पूजा के लिए कोई अच्छा सा लड़का ढूंढकर उसकी भी शादी कर दे…पूजा राजस्थान वापस आ जाती है…पूजा का दिल टूटा होता है..राजस्थान मे लोकसंगीत के जरिए पूजा अपनी बात कह रही होती है…कि भीड़ में उसे वीरेन दिखता है…वीरेन को भी लंदन से पूजा जाने के बाद अहसास होता है कि पहले पल्लवी की जो जगह उसके दिल में थी, वहां अब पूजा आ चुकी है…दोनों के मिलने के साथ ही फिल्म का अंत हो जाता है…यानी वीरेन ने एक लिहाज से अपनी बेटी की उम्र बराबर पूजा का ही जीवनसाथी बनना कबूल कर लिया…फिल्म का ये अंत दर्शक पचा नहीं पाए और फिल्म बुरी तरह फ्लाप हो गई…
कहते हैं फिल्में समाज का आईना होती हैं और समाज में बदलाव का भी…लेकिन लीक से हटकर कोई भी बात होती है तो उसे समाज बर्दाश्त नहीं कर पाता… रियल लाईफ में भी रील लाइफ में भी…परिवेश चाहे कोई भी हो समाज की सोच में ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता…इसीलिए महावीर और जानकी की कहानी के साथ फिल्मों का मैं जिक्र कर रहा हूं….आशा है मेरा पाइंट ऑफ व्यू आप तक पहुंच गया हो गया…
बस अब असली परिवेश यानी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म की बात रह गई है…उसका जिक्र वैसे तो मैं कल ही करता लेकिन एक बेहद जरूरी निजी प्रायोजन की वजह से मुझे दो दिन के लिए शहर से बाहर जाना पड़ रहा है…इसलिए आपसे आग्रह है कि आप दो दिन के लिए मुझे छुट्टी देंगे…बाकी मिलते हैं ब्रेक के बाद…