हम मेहनतक़श इस दुनिया से, जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे…
मज़दूर फिल्म का ये गाना 20 और 21 फरवरी को बहुत याद आया…इन्हीं दो तारीख़ों को यूपीए सरकार की जनविरोधी और मज़दूर विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ देश भर में महाबंद रहा…हड़ताल का आह्वान 11 ट्रेड यूनियन ने किया था….हड़ताल के पहले दिन नोएडा के फेस 2 में मज़दूर हिंसा पर उतर आए…जमकर तोड़फोड़ के अलावा आधा दर्जन फैक्ट्रियों में आग़ लगा दी गई…दो दर्जन वाहन फूंक डाले गए…अगले दिन के अख़बार जलती हुई कारों की तस्वीरों से पटे थे…मीडिया में जो रिपोर्टिंग थी, वो यही साबित करने वाली थी कि मज़दूर ही देश में सबसे बड़े गुंडे और अराजक तत्व हैं..साथ ही फैक्ट्री मालिकों और मोटी तनख्वाह पाने वाले उनके मैनेजरों से दीन-हीन लोग दुनिया में और कोई नहीं…
देश की आम जनता के ज़ेहन में नोएडा में जलती हुई कारों की तस्वीरें ही रच-बस गई…पूरे देश में मज़दूरों की दुर्दशा पर लोगों का ध्यान खींचने के लिए जिस महाबंद का आह्वान किया गया था, उसका असली उद्देश्य हाशिए पर चला गया…इस पर बड़ी हाय-तौबा मचाई गई कि पूंजीपतियों का करोड़ों रुपये का नुकसान हो गया…ये तो सिर्फ एक दिन की कहानी थी…पूंजीपति हर दिन मज़दूरों के शोषण के ज़रिए आर्थिक हिंसा से अपना धन का अंबार जो ऊंचा करते जाते है, उस पर क्या कभी कहीं कोई आवाज़ उठती दिखती है…
स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन (SEZ) के लिए किस तरह किसान-आदिवासियों की ज़मीन छीनकर कॉरपोरेट्स के हवाले कर दी जाती है, ये सच किसी से छुपा नहीं है…कोई विरोध करता है तो पुलिस की गोलियां उनका सीना छीलने के लिए तैयार रहती हैं…लेकिन इस पर कहीं चूं भी नहीं होती…बंद के दौरान ये तो खूब बताया गया कि जनता को क्या क्या परेशानी हुई…बच्चों के स्कूल ना पहुंचने से उनकी पढ़ाई का नुकसान हुआ…मरीज़ों को अस्पताल ले जाने में परेशानी हुई…यानी मज़दूरों को समाज का सबसे बड़ा विलेन साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई…जैसे कि वो तो इस समाज का हिस्सा है ही नहीं….हमारा जीना एक दिन अस्तव्यस्त हुआ तो हंगामा हो गया…लेकिन उस मज़दूर का क्या, जिसके लिए रोज़ का जीना ही सबसे बड़ी चुनौती है…
पेट्रोल, डीज़ल, रसोई गैस, फल, सब्ज़ी के दाम बढ़ने पर हम आसमान सिर पर उठा लेते है कि महंगाई डायन मार कर छोड़ेगी…जब हमें इतनी दिक्कत होती है तो ज़रा उस मज़दूर का सोचिए, उसका क्या बुरा हाल होता होगा…क्या महंगाई उसके लिए नहीं बढ़ती…हम अपेक्षा रखते है कि महंगाई बढ़ रही है तो हमारी तनख्वाह में हर साल उसी अनुपात में बढ़ोतरी हो…लेकिन यही मांग फैक्ट्री मज़दूर करता है तो वो गुनाह करता है…फैक्ट्री मज़दूर ही क्यों हमारे मोहल्ले का चौकीदार, प्रेसवाला या घर की मेड 100-200 रुपये बढ़ाने की मांग करती है तो फौरन हमारे मुंह पर आ जाता है…इनके तो मुंह ही चौड़े होते जा रहे हैं…
हर चीज़ बाज़ार के हाथों नियंत्रित होती है…बाज़ार कॉरपोरेट्स का है…इसलिए टारगेट भी वही लोग है जो उत्पादों को खरीदने की हैसियत रखते हैं…मज़दूर इस कैटेगरी में नहीं आते इसलिए उन पर कभी फोकस नहीं रहता…कभी कोई स्लम जा कर जानने की कोशिश नहीं करता कि वहां गरीब मज़दूर किस हाल में रहते हैं…कैसे रोज़ मर मर कर जीते हैं…
नोएडा में जो उपद्रव हुआ, उसकी जड़े कहां है, ये किसी ने जानने की कोशिश नहीं की…नोएडा के करीब साढ़े छह हज़ार उद्योगों में तीन लाख से ज़्यादा श्रमिक काम करते हैं…यहां की फैक्ट्रियों में पिछले काफ़ी अरसे से छंटनी चल रही है…अब ठेके पर मज़दूर रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है…ठेकेदार किस तरह मज़दूरों का शोषण करते हैं, ये भी किसी से छुपा नहीं है…यहां फैक्ट्रियों के बाहर पिछले कई महीने से कभी छंटनी के विरोध में तो कभी वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर मज़दूर प्रदर्शन करते आ रहे हैं….हज़ारों मामले श्रम विभाग में लंबित है….कोई शोषण की शिकायत करने पुलिस के पास जाता है तो पुलिस भी पहले फैक्ट्री मालिक का हित देखती है…ऐसा क्यों, क्या ये भी बताने की ज़रूरत है…
मज़दूरों को तय मानकों के अनुसार तनख्वाह नहीं मिलती….नोएडा में मज़दूरों को 5918 रुपये की न्यूनतम तनख्वाह पाने के भी लाले हैं…जबकि दिल्ली में यही न्यूनतम वेतन 8814 रुपये है…ये असंतोष भी नोएडा में आक्रोश का लावा बन कर फूटा…महिला श्रमिकों की हालत तो और भी बदतर है…पैकेजिंग और एक्सपोर्ट कंपनियों में काम करने वाली इन महिला श्रमिकों को दस-दस घंटे जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी पांच हज़ार रुपये ही वेतन मिलता है…नोएडा में बस एक तिहाई कंपनियां ही हैं जो मज़दूरों को ईएसआई जैसी चिकित्सा सुरक्षा जैसी सुविधाएं देती हैं…
नोएडा में मज़दूरों के वेतन का बड़ा हिस्सा सिर छुपाने के लिए छत का बंदोबस्त करने में ही खप जाता है…नोएडा के विकसित सेक्टरों के बीच अब भी निठारी, हरौला, छलेरा, भंगेल, चौड़ा, बरौला, होशियारपुर, नया बांस जैसे पुराने गांव वाले इलाके हैं…नोएडा के ज़्यादातर मज़दूरों की रिहाइश इन्हीं बस्तियों में है…यहां बिना कोई सुविधा एक-एक कमरे के लिए ढाई से तीन हज़ार रुपये चुकाने पड़ते है…अविवाहित मज़दूर तो एक ही कमरे में पांच-छह की संख्या में रहकर कुछ रुपये बचा लेते हैं…लेकिन घर-परिवार वाले मज़दूरों की हालत तो और दयनीय हो जाती है….कमरे का किराया देने के बाद आख़िर खायें क्या…बच्चे हैं तो उन्हें पढ़ाए कैसे…
मनमोहनी अर्थव्यवस्था के दो दशकों का सबसे कड़वा सच है कि देश में ज़्यादातर पूंजी चंद हाथों में ही सिमट गई है…गरीब की हालत और पतली होती जा रही है…आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी होती जा रही है…सरकार भले ही सबको साथ लेकर विकास की बात करती है…लेकिन उसकी नीतियां समाज के सबसे ऊंची पायदान पर खड़े लोगों को ही फ़ायदा पहुंचाने की है…सबसे निचली पायदान पर खड़े व्यक्ति के लिए तो अब यही सबसे बड़ा सवाल है कि वो जीने के लिए रोज़ खड़ा कैसे रहे…और ये खड़ा नहीं रहा तो देश को भी लड़खड़ाने से कोई नहीं रोक सकता...उसका आक्रोश रह-रह कर कभी हरियाणा के मानेसर में तो कभी यूपी के नोएडा में फूटता ही रहेगा…सरकार और समाज को चाहिए कि वो सिर्फ आग़ लगने पर ही फायरफाइटर की भूमिका ना निभाए…हम सबको सोचना चाहिए कि ऐसी परिस्थितियां ही क्यों बनने दी जाएं, जिससे आग़ लगने की नौबत आए…समझदारी इसी में है कि वक्त रहते, हम चेत जाएं….
बात खत्म अपने चिरपरिचित अंदाज़ में फैक्ट्री-मालिक और मज़दूरों के रिश्ते पर बनी फिल्म पैग़ाम के इस गीत से करुंगा…
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