शुक्र है ब्लागर्स कभी रिटायर नहीं होते…पहले सोच रहा था कि आज पोस्ट इसी विषय पर लिखूंगा…लेकिन फिर अपनी पिछली पोस्ट पर आई टिप्पणियों पर गौर किया तो लगा सभी बड़े बेचैन हैं- मेरे गैरेज वाले दोस्त मक्खन से मिलने के लिए…तो आज मैंने जो पोस्ट लिखनी थी वो कल के लिए टाल दी है…आज मक्खन से आप को अच्छी तरह मिलवा ही दूं…चलिए फिर सीधे स्लॉग ओवर में…
स्लॉग ओवर
मक्खन जी पढ़ाई छूटने के बाद पिता के गैरेज पर बैठ तो गए लेकिन उनका दिल कहां लगे…अब कहां स्कूल में ढक्कन, चंगू, मंगू… जैसे हमदिमाग, हमप्याला, हमनिवाला दोस्तों के साथ मस्ती की पाठशाला…और कहां टूटी गाड़ियों की पिताश्री की कार्यशाला…मक्खन बेचारे का दिल लगे तो लगे कैसे…एक तो छोटा शहर, ऊपर से बात-बात पर पिताश्री के नश्तर की तरह चुभते ताने…मक्खन सपनों की उड़ान भरे तो कैसे भरे…खैर सपने तो सपने हैं, ऐसे कोई मानेंगे…मक्खन ने भी सोचा कि छोटे शहर में गैरेज से बात बनने वाली नहीं…अगर गैरेज को ही ज़िंदगी बनाना है तो इसे छोटे नहीं दिल्ली जैसे बड़े शहर में खोला जाए…फिर सोचा कि बड़े शहर में अकेला जान कोई भी पोपट बना लेगा…क्यों न चार यार मिलकर ही दिल्ली चले…अब स्कूल वाली वाली मंडली किस दिन काम आती…मक्खन ने दी आवाज़ और ढक्कन, चंगू, मंगू दौड़े चले आए…आखिर बेताब का गाना जो सुन रखा था….तुम ने दी आवाज़, लो हम आ गए…अब मक्खन ने पिताश्री के गैरेज में ही अपने वफ़ादार साथियों के साथ वार-रूम मीटिंग की…रिसोल्यूशन पास हुआ कि अपना गैरेज तो दिल्ली में ही खुलेगा और दुनिया चाहे इधर से उधर हो जाए, नए शहर में जाकर एक पल के लिए भी एक-दूसरे से अलग नहीं होना…चाहे दुनिया वाले…गे,गे,गे,गे.. करते रहें..
खैर जी आ गए मक्खन द ग्रेट अपनी ब्रिगेड के साथ दिल्ली…किसी सयाने से पूछ कर कि कौन सी मार्केट सही रहेगी, मार्केट भी चुन ली और गैरेज भी खोल लिया…अब चारों इंतज़ार करने लगे ग्राहक का…एक दिन-दो दिन-तीन दिन…हफ्ता-दो हफ्ते…महीना-दो महीने-चार महीने, बीत गए…मक्खन एंड कंपनी के गैरेज की ओर एक भी ग्राहक ने मुंह करके नहीं देखा…मक्खन समेत चारों दोस्त बड़े परेशान…क्या सोच कर दिल्ली आए थे और क्या हो गया…अब मक्खन के परम सखा ढक्कन ने सलाह दी…चलो उन्हीं सयाने जी के पास, जिनके पास पहले भी गए थे…पूछेंगे कि आखिर हमारी खता क्या है…हमारा गैरेज चल क्यों नहीं रहा…चार महीने में एक भी गाड़ी ठीक होने नहीं आई..सयाने जी से पूछा तो उनका जवाब था…गैरेज चलेगा तो ज़रूर लेकिन तुमने उसे पांचवीं मंज़िल पर क्यों खोल रखा है…सयाने जी की बात सुनकर चारों दोस्त बाहर आ गए…मूड तो पहले ही उखड़ा हुआ था, रही सही कसर सयाने जी ने पूरी कर दी…फिर हुई वार-रुम मीटिंग…अब तय हुआ …छोड़ो यार ये गैरेज का चक्कर-वक्कर…कुछ नहीं धरा इस धंधे में…दिल्ली में रेंट-ए-कार (टैक्सी सर्विस) बड़ा वाह-वाह बिजनेस है…क्यों न उसी में किस्मत आजमाई जाए…लो जी… ये ले और वो ले… हाथों-हाथ गैरेज का तिया-पांचा कर दिया… चमचमाती कार टैक्सी-सर्विस के लिए खरीद ली…स्टैंड पर जाकर खड़ी भी कर दी…फिर इंतज़ार होने लगा कस्टमर का…घंटा-दो घंटे, दिन-दो दिन, हफ्ता-दो हफ्ते, महीना-दो महीने…फिर वही गैरेज वाली कहानी…चारों के कान सुनने को तरस गए कि क्यों भईया टैक्सी खाली है क्या, लेकिन किसी कस्टमर को दया नहीं आई…चारों के सामने बाबा आदम के ज़माने की टैक्सियों को भी ग्राहक मिल जाते लेकिन इनकी चमचमाती कार… टैक्सी बनने के लिए तड़पती ही रह गई…अब करें तो करें क्या…चलो भई फिर उसी सयाने जी के पास…सयाने जी से पूछा कि हमारी टैक्सी ने किसी का क्या बिगाड़ा है…मुहूर्त के लिए भी तरस गई है…सयाने जी ने कहा… टैक्सी तो तुम्हारी चलेगी, लेकिन तुम हर वक्त दो आगे, और दो पीछे की सीट पर क्यों बैठे रहते हो…
सयाने जी की बात सुनी…थोड़ी देर सोचते (?) रहे, फिर मक्खन महाराज ही बोले…जो धंधा हम चारों को एक दूसरे से जुदा कराए,उसे एक मिनट के लिए भी नहीं करना…टैक्सी को वापस करके आते हैं…लेकिन ये क्या…एक और मुसीबत…अब टैक्सी टस से मस होने का नाम ही न ले…लो, अब ये कौन सी कहानी हो गई…बड़े अक्ल के घोड़े दौड़ाए…लेकिन कोई फायदा नहीं…टैक्सी को न हिलना था, न हिली…मरते क्या न करते…चलो जी फिर सयाने जी के पास…पूछा…अब ये टैक्सी क्यों नहीं हिलती…सयाने जी ने कहा…ओ रब दे बंदों, टैक्सी तो तुम्हारी हिलेगी, लेकिन तुम दो पीछे से…और दो आगे से धक्का क्यों लगा रहे हो…
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