‘म’ से महाजन, ‘म’ से मोदी…खुशदीप

गोवा में बीजेपी का मंथन देखकर एक साथ बहुत कुछ याद आ रहा है…सबसे पहले याद आई डार्विन की थ्योरी…गलाकाट प्रतिस्पर्धा हमेशा एक ही प्रजाति के सदस्यों के भीतर ज़्यादा होती है…बनिस्बत कि दो अलग-अलग प्रजातियों के… डार्विन कह गए हैं कि एक प्रजाति के सदस्यों की ज़रूरतें एक जैसी होती हैं…खाना, सिर पर छत जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी होने के बाद अपने समाज में नामी शख्सीयत होने की ख्वाहिश जागती है…फिर सबसे ताकतवर होने की…अब देखा जाए तो बीजेपी में भी तो यही हो रहा है…चले थे कांग्रेस का डिब्बा गोल करने…लेकिन वो तो रह गया पीछे और आपस में ही लठ्ठमलठ्ठा शुरू हो गई…


एक पाले में नरेंद्र मोदी के पीछे आ जुटे हैं…राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, रामलाल, बलबीर पुंज, स्मृति ईरानी, अनुराग ठाकुर और मनोहर पर्रिकर…


इस रस्साकशी का दूसरा छोर लौहपुरुष लाल कृष्ण आडवाणी के हाथ में है…उनके पीछे पुराने सभी गिले-शिकवे भुलाकर दम लगा रहे हैं….सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी, शत्रुघ्न सिन्हा, अनंत कुमार, शिवराज सिंह चौहान, वरुण गांधी, मेनका गांधी, उमा भारती आदि आदि…


इस पूरे घटनाक्रम पर गौर करने के साथ आपको 11 साल पीछे जाना चाहिए…तब भी बीजेपी का गोवा में अधिवेशन चल रहा था…उस वक्त भी आज की तरह ही नरेंद्र मोदी सबसे बड़ा मुद्दा थे…2002 में गुजरात दंगों के बाद मोदी की मुख्यमंत्री की कुर्सी खतरे में थी…राजधर्म निभाने में नाकाम रहने की वजह से वाजपेयी मोदी की मुख्यमंत्री पद से हर हाल में छुट्टी चाहते थे…लेकिन उस वक्त लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी के लिए ज़ोरदार पैरवी की थी…वाजपेयी ने उनका लिहाज़ किया और मोदी को अभयदान मिल गया…अब उस वक्त आडवाणी को क्या पता था कि 11 साल बाद मोदी का कद डायनासॉर की तरह इतना बड़ा हो जाएगा कि उन्हें ही निगलने के लिए तैयार हो जाएगा…


यहां राजनीति का ये पाठ सटीक बैठता है…


शिखर पर पहुंचते ही उसी सीढ़ी को सबसे पहले लात मारनी चाहिए, जिस पर चढ़ कर वहां पहुंचा गया हो…


इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले मोदी का मेंटर आडवाणी को ही माना जाता था…गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी मोदी का दिल्ली में तब तक भाव नहीं बढ़ा, जब तक वाजपेयी खराब स्वास्थ्य की वजह से नेपथ्य में नहीं चले गए…वाजपेयी के रहते बीजेपी की भविष्य की उम्मीद प्रमोद महाजन थे….आज मोदी को लोकसभा चुनाव के साथ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की कमान देने के लिए दबाव डाला जा रहा है…लेकिन प्रमोद महाजन को 2003-2004 में बिना किसी परेशानी के लोकसभा चुनाव और राज्यों में विधानसभा चुनाव की कमान एकसाथ सौंप दी गई थी…यानि प्रमोद महाजन पार्टी के अंदर गोटियों के मैनेजमेंट में मोदी से कहीं आगे थे…



वाजपेयी का खराब स्वास्थ्य और प्रमोद महाजन की अचानक दुखद परिस्थितियों में मौत…इन दो कारणों की वजह से भी बीजेपी में दूसरी पीढ़ी के नेताओं में मोदी का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर चढ़ा…ये बात दूसरी है कि साम दाम दंड भेद जानने के बावजूद प्रमोद महाजन पार्टी के भीतर विनम्रता से काम निकालना जानते थे, दूसरी ओर मोदी का स्टाइल अहम ब्रह्मास्मि का है…


देखना अब ये है कि बीजेपी एकसुर में मोदी को पार्टी का राष्ट्रीय मुखौटा मानने में कितनी देर लगाती है….



चलिए अब राजनीति पर ही…


स्लॉग ओवर…


एक नेता जी की काफ़ी उम्र हो चली…लेकिन वो सियासत से संन्यास लेने का नाम ही नहीं ले रहे थे…उनके अंगद की तरह जमे रहने से और तो और, घर में उनका बेटा ही त्रस्त हो गया…एक दिन लड़के से रहा नहीं गया…उसने पिता से कहा कि अब आप घर पर आराम कीजिए और सियासत में उसे आगे बढ़ने का मौका दीजिए…बस इतना कीजिए कि सियासत के जो दांव-पेंच जानते हैं, वो मुझे भी सिखा दीजिए…


अब बेटे ने ज़्यादा जिद की तो पिता ने उससे कहा कि चलो छत पर चलते हैं…वहीं राजनीति की बात करेंगे….बेटा पिता के साथ छत पर आ गया…छत पर पहुंचने के बाद पिता ने बेटे से कहा….चलो अब छत से नीचे छलांग लगा दो…बेटा सियासत में आने को मरा जा रहा था…उसने सोचा कि शायद ये ज़रूरी शर्त होगी…बेटे ने बिना आगा-पीछे सोचे छत से नीचे छलांग लगा दी….बेटे की टांग टूट गई…अब बेटा पिता पर आग-बबूला….ये क्या मैंने आपको राजनीति सिखाने को कहा और आप ने मेरी टांग तुड़वा दी…


इस पर बाप का जवाब था…


बेटा यही पहला पाठ है…राजनीति में कभी अपने बाप की बात पर भी भरोसा नहीं करना….