मेरी मेट्रो का टाइम हो गया है…खुशदीप

रोहित मेरा बेहद अज़ीज़ है…मेरा बहुत ध्यान रखता है…इसे पता रहता है कि मैं अगर काम में लगा हूं तो बाक़ी सभी सुध-बुध खो बैठता हूं…यहां तक कि खाने का भी ध्यान नहीं रहता…ऐसे में रोहित रोज़ ज़बरदस्ती मुझे पकड़कर चाय या हल्का नाश्ता करा देता है…मैं जानता हूं इसके अंदर विचारों का ज्वालामुखी धधकता रहता है…जो इसकी रचनाओं में दिखता रहता है…मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा भरोसा है कि एक दिन ये तरक्की के सारे आसमान छुएगा…किसी इनसान का दिल अगर दूसरे के दर्द को देखकर नहीं पसीजता तो मेरी नज़र में वो इनसान नहीं बस इनसान की शक्ल में रोबोट होता है…और रोहित में इनसान कहलाने लायक सारी खूबियां हैं…

रोहित ने आज अपने ब्लॉग बोले तो बिंदास पर दिल्ली के मेट्रो के सफ़र पर लाजवाब कविता लिखी है आप भी पढ़िए…

Delhi Metro करें एक रोजाना का सफ़र….Rohit

मैं अक्सर देखता हूं


थकी अलसी पसरी धूप


कभी पास बैठी लड़की


तेजी से मोबाइल पर


जिसकी चलती हैं उंगलियां


मानो सितार के तार हों


कभी किसी के मोबाइल


से चिपके कान


या कान पर चिपका मोबाइल..


सुनता हूं कई बार


हवा में खनकती आवाजें


फिर देखता हूं


कोला से गले को तर करतीं


खानापिना निषेध की उद्घोषणा के बीच


खिलखिलाती बेफिक्र लड़कियों का झुंड


ढूंढता हूं इन्हीं में अपने खोए पल


मित्रों के ठहाकों के बीच


शिक्षकों की नकल उतारते


भविष्य की उधेड़बुन से परे


बतियाते उनकी आंखों की चमक


ये सब देखता हूं


जीवन की ढलती दुपहिरया के लोगों की


इसी बेफिक्र झुंड पर फिरतीं


आंखों की पुतलियां


साथ ही निगलने की ललक


भी देखता हूं…


औरतों की सीट पर पसरे मर्द


तो दो ही रिजर्व सीटों के दम पर


सातों सीटों के


रिजर्व होने के दावे करती


बेशर्म औरतों को भी झेलता हूं


इन्हीं के बीच बुजुर्गों को


सीट पर जमे लड़के-लड़कियों के सामने


थके हारे लाचार भी देखता हूं


अक्सर अनजाने लोगो


के लिए सीट छोड़ने के बीच


खुशनुमा माहौल बनते भी देखता हूं


राजधानी में मेट्रो के आरमदेय सफर


पर गर्व करते


अपने शहर में मेट्रो की दूर


परिवहन व्यवस्था के महज दुरस्त


हो जाने की ख्वाहिश


करते लोगों से भी मिलता हूं


लस्त-पस्त नाले में तब्दील


यमुना को देख हैरान


होते देश के अन्य बाशिंदे भी देखता हूं


अपने घंटे भर के सफर में


जाने कितनी दुनिया देखता हूं..


साथ ही देश की माटी के अनेक रंग


पर एक सी महक भी महसूस करता हूं


मैं सब देखता हूं


क्योंकी मेरा सफर अब आरामदेय हो गया है

बेशक अब मेट्रो पर बहुत भीड़ रहने लगी है…जेबक़तरे यहां भी अपना हुनर दिखाने लगे हैं…लेकिन इस सब के बावजूद मेट्रो अब दिल्ली की लाइफ़लाइन बनती जा रही है…बसों के उत्पीड़न वाले सफ़र से मेट्रो का ठंडा सफ़र कहीं आरामदायक है…हां, पैसे ज़रूर कुछ ज़्यादा खर्चने पड़ सकते हैं…लेकिन मेट्रो ने जिस तरह डेढ करोड़ से पार की आबादी वाले ट्रैफ़िक का बोझ अपने कंधे पर उठाया है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है…मेरी नज़र में मेट्रोमैन ई श्रीधरन देश के बड़े नायक हैं…वैसे भी आज़ादी के बाद कहीं विकास का सबसे बड़ा काम हुआ है तो वो दिल्ली की मेट्रो ही है…

रोहित ने अपनी पोस्ट में मेट्रो की दैनिक यात्रा का बेबाक और सटीक ढंग से चित्रण किया है…उसकी कविता पर प्रतिक्रियास्वरूप मेरी ये चंद लाइना…

सफ़र आरामदेह हो गया है,


लेकिन इनसान रोबोट हो गया है,


अब उसके सीने में दिल नहीं,


एटीएम का कार्ड धड़कता है,


मां कहती है, बेटा बात तो सुन,


बेटा कहता है, चुप रहो,


मेरी मेट्रो का टाइम हो गया है,


वाकई सफ़र आरामदेह हो गया है…