महिमा मंडन नहीं डूब कर मर जाने का मन…खुशदीप

महावीर और जानकी देवी के बेमेल जोड़ पर जमकर विमर्श हुआ…कोई गलत नहीं है…हर किसी की अपनी राय है…और हर राय का सम्मान किया जाना चाहिए…कुछ टिप्पणियां ऐसी भी आईं कि उन्हें विमर्श के निचोड़ का इंतज़ार है…निर्णय का इंतज़ार है…पहली बात तो ये कि यहां कोई पंचायत नहीं लगी थी जो फैसला सुनाए…और वैसे भी मैं और मसूर की दाल…मेरी हैसियत ही क्या जो फैसला सुनाऊं…

कल जो मैंने  3 फिल्मों के ज़रिए आप से अपनी बात कहने का वादा किया था, उस पर आने से पहले दो-तीन बातें साफ़ कर दूं…

पहली बात-

ये महावीर और जानकी देवी के वाकये की जो महिमा-मंडन की बात की जा रही है…वो महिमा मंडन नहीं बल्कि हमारे समाज में ऐसे वाकये होते हैं…ये जान कर डूब कर मर जाने वाली बात है…ये महावीर-जानकी की कहानी का सेलिब्रेशन नहीं बल्कि समाज का सफोकेशन है…जहां तक महावीर को प्रचार देना है तो उस बेचारे को तो पता भी नहीं होगा कि ब्लॉग के ज़रिए उसकी कहानी पर इतनी ज्वलंत बहस हो रही है…

दूसरी बात-

अगर महावीर बेटा बनकर जानकी देवी के साथ रहने लगता तो क्या सड़े-गले दिमाग वाले उनके खिलाफ उलटी-सीधी बातें करना बंद कर देते…वो भी खासकर उस परिवेश में जिस में महावीर और जानकी रहते हैं…

ये सब मानते हैं कि इस कहानी का असली खलनायक परिवेश है.. महावीर और जानकी देवी के फैसले को पूरी तरह गलत बताने वाले भी मानते हैं कि हालात ने उन्हें ऐसे मोड़ पर ला दिया जहां उन्हें पति-पत्नी बनना ही सबसे बेहतर विकल्प नज़र आया…

हां तो यहां परिवेश सबसे बड़ा दुश्मन है, इसलिए मैंने तीन अलग-अलग काल की अलग-अलग परिवेश की तीन फिल्मों को चुना है…

एक परिवेश गांव का है…एक परिवेश हम शहर में रहने वाले या मिडल क्लास का है…एक परिवेश राजसी के साथ विदेश से भी जुड़ी हाईक्लास का है…तीनों ही फिल्मों में नायक और नायिका या नायिका और नायक की उम्र में काफी अंतर है…एक पोस्ट में एक ही फिल्म का जिक्र ढंग से कर पाऊंगा, इसलिए विमर्श को मुझे दो दिन और बढ़ाना पड़ेगा…

पहले उस परिवेश की फिल्म पर आता हूं जो हमारे शहरी या मिडिल क्लास जीवन से सबसे ज़्यादा मेल खाती है…ये फिल्म थी 1977 में आई- दूसरा आदमी…रोमानी रिश्तों में महारत रखने वाले यश चोपड़ा ने इस फिल्म का निर्माण किया था…और रमेश तलवार ने निर्देशन…

फिल्म का सार कुछ इस तरह है…निशा (राखी गुलजार) एक सफल आर्किटेक्ट है…अपनी पहचान है…निशा का एक हमउम्र प्यारा सा दोस्त भी है शशि सहगल (शशि कपूर)…खुशदिल और दूसरों को हरदम हंसाने वाला इंसान…लेकिन एक हादसे में शशि की मौत हो जाती है…ये हादसा निशा को अंदर से तोड़ कर रख देता है…तभी निशा की मुलाकात अपने से उम्र में कहीं छोटे और जवांदिल करन सक्सेना (ऋषि कपूर) से होती है…करन की घर में सुंदर सी पत्नी टिम्सी (नीतू सिंह) भी है…दूसरों की मदद को हर दम तैयार रहने वाला करन निशा को अपनी कंपनी में नौकरी दे देता है…निशा को करन के हर अंदाज़ में शशि नज़र आने लगता है…करन भी निशा की ओर खिंचा चला जाता है…दोनों को ही एक-दूसरे का साथ अच्छा लगने लगता है…काम के दौरान साथ रहने का उन्हें वक्त भी काफी मिल जाता है…लेकिन दोनों मर्यादा की हद कभी नहीं लांघते…लेकिन इस नज़दीकी की वजह से करन अपनी पत्नी टिम्सी से दूर होने लगता है…टिम्सी के कोई सवाल पूछने पर करन अक्सर झल्लाहट का इज़हार करने लगता है…

करन की निशा के लिए दीवानगी इतनी बढ़ जाती है कि वो बीच की सारी दूरियां मिटाने के लिए बेताब हो जाता है…यहां फिल्म में निशा और करन पर फिल्माए एक गाने का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी है…

क्या मौसम है दीवाने दिल,
अरे चल कहीं दूर निकल जाए…
कोई हमदम है, चाहत के काबिल,
तो किस लिए हम संभल जाएं…
इतने करीब आएं कि एक हो जाएं हम
एक हो जाएं हम,
कि दुनिया को नज़र नहीं आए हम…

निशा और करन के बीच सारी दीवार टूटने वाली ही होती हैं और करन गा रहा होता है किस लिए हम संभल जाएं…तभी निशा का विवेक जाग जाता है और वो करन को ये कह कर रोकती है…

अच्छा है, संभल जाएं हम…

यानी यहां आधुनिक होते हुए भी निशा ने समाज के उसूलों का मान रखा और जो उचित भी था, करन को अपनी पत्नी टिम्सी के पास वापस लौटना पड़ा…

कल मैं राजसी और विदेश की पृष्ठभूमि वाली, साथ ही नायक और नायिका की उम्र मे फर्क वाली फिल्म का जिक्र करूंगा…और परसों महावीर और जानकी से जो परिवेश सबसे ज़्यादा मिलता है यानि की गांव का, उस परिवेश में बनी फिल्म के उल्लेख के साथ इस विमर्श की इतिश्री करूंगा…

Khushdeep Sehgal
Follow Me
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x