ब्लॉगरों से अख़बारों की चोट्टागिरी…खुशदीप

छपास का रोग बड़ा बुरा, बड़ा बुरा,
माका नाका गा भाई माका नाका,
ऐसा मेरे को मेरी  मां  ने कहा,
माका नाका नाका भाई माका नाका…

ब्लॉगिंग में हम पोस्ट चेप चेप कर कितने भी तुर्रम खान बन जाए लेकिन जो मज़ा प्रिंट मीडिया के कारे-कारे पन्नों में खुद को नाम के साथ छपा देखकर आता है, वो बस अनुभव करने की चीज़ है, बयान करने की नहीं…अब बेशक अखबार वाले ब्लॉग पर कहीं से भी कोई सी भी पोस्ट उठा लें, बस क्रेडिट दे दें तो ऐसा लगता है कि लिखना-लिखाना सफ़ल हो गया…अब ये बात दूसरी है कि बी एस पाबला जी अपने ब्लॉग इन मीडिया के ज़रिए सूचना न दें तो ज़्यादातर ब्लॉगर को तो पता ही न चले कि वो किसी अखबार में छपे भी हैं…

खैर, अब मुद्दे की बात पर आता हूं…अखबार किसी लेखक की रचना छापते हैं तो बाकायदा उसका मेहनताना चुकाया जाता है…लेकिन जहां बात ब्लॉगरों की आती है तो उनकी रचनाओ को सारे अखबार पिताजी का माल समझते हैं…कहीं से भी कभी भी कोई पोस्ट निकाल कर चेप दी जाती है…पारिश्रमिक तो दूर लेखक को सूचना तक नहीं दी जाती है कि उसकी अमुक रचना छपी है…अखबार इतनी दरियादिली ज़रूर दिखाते है कि पोस्ट के साथ ब्लॉगर और उसके ब्लॉग का नाम दे देते हैं…कभी-कभी तो ये भी गोल हो जाता है…

यहां तक तो ठीक है, लेकिन बात इससे कहीं ज़्यादा गंभीर है…कहते हैं न कि गलत काम पर न टोको तो  सामने वाले का हौसला बढ़ता ही जाता है…ऐसा ही हाल अखबारो का भी है…अभी हाल में ही एक अखबार के किए-कराए की वजह से भाई राजीव कुमार तनेजा को अनूप शुक्ला जी को लेकर गलतफहमी हुई…उन्होंने त्वरित प्रतिक्रिया में आपत्तिजनक टाइटल देते हुए पोस्ट लिख डाली…ये सब आवेश में हुआ…बाद में गलती समझ में आने पर राजीव जी ने वो पोस्ट अपने ब्ल़ॉग से हटा भी दी…लेकिन जो नुकसान होना था वो तो हो ही गया…और ये सब जिस अखबार ने किया, उसको रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा…हुआ ये था कि इस बार होली पर अखबार ने अनूप जी की पिछले साल होली पर लिखी हुई पोस्ट बिना अनुमति उठा कर धड़ल्ले से छापी और साथ रंग जमाने के लिए राजीव जी के ब्लॉग से कुछ चित्र उड़ा कर भी ठोक डाले…राजीव जी से भी इसके लिए कोई अनुमति नहीं ली गई…राजीव जी को ऐसा लगा कि सब कुछ अनूप शुक्ला जी ने किया है…जबकि वो खुद भी राजीव जी की तरह ही भुक्तभोगी थे…अब क्या इस अखबार के खिलाफ कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू नहीं की जानी चाहिए…

चलिए इस प्रकरण को छोड़िए…अखबार ब्लॉगरों के क्रिएटिव काम को घर का माल समझते हुए कोई पारिश्रमिक नहीं देते, कोई पूर्व अनुमति नहीं लेते…यहां तक ब्लॉगर झेल सकते हैं…लेकिन ये कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है कि कोई आपके लिखे से खिलवाड़ करे और अपनी तरफ से उसमें नए शब्द घुसेड़ दे…पोस्ट को जैसे मर्जी जहां से मर्जी काट-छांट कर अपने अखबार के स्पेस के मुताबिक ढाल ले…शीर्षक खुद के हिसाब से बदल ले…वाक्य-विन्यास के साथ ऐसी छेड़छाड़ करे कि अर्थ ही अलग निकलता दिखाई दे…और ये सब आपका नाम देकर ही किया जाए…अखबार के पाठक को तो यही संदेश जाएगा कि जो भी लिखा है ब्लॉगर ने ही लिखा है…क्या ये चोट्टागिरी ब्लॉगर की रचनात्मकता के लिए खतरा नहीं…

आज ऐसा ही मेरी एक पोस्ट के साथ हुआ…लखनऊ के डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट अखबार ने मेरी पोस्ट अन्ना से मेरे दस सवाल को छापा…अब आप फर्क देखने के लिए मेरी पोस्ट को पहले पढ़िए....और फिर अखबार ने देखिए छापा क्या….

पहले तो शीर्षक ही बदल दिया गया…मेरा शीर्षक था अन्ना से मेरे दस सवाल और अखबार ने छापा अन्ना को कुछ सुझाव…दूसरी लाईन में मैंने लिखा कि अन्ना की ईमानदारी और मंशा को लेकर मुझे कोई शक-ओ-शुबहा नहीं…अखबार ने छापा…अन्ना की ईमानदारी और मंशा पर किसी को कोई शक नहीं…मैंने लिखा…कांग्रेस और केंद्र सरकार…छापा गया कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार…फिर कुछ लाइनें गोल कर दी गईं…और अखबार ने लिखा…मेरा कहना है कि नेता कौन से अच्छे है और बुरे, ये देश की जनता भी जानती है…जबकि मैंने यहां ये कहीं नहीं लिखा था कि मेरा कहना है…इस तरह के तमाम विरोधाभास मेरे नाम पर ही अखबार ने जो छापा उसमें भर दिए…मेरी सबसे ज़्यादा आपत्ति उस पैरे को लेकर है जिसमें मैंने स्वामी रामदेव के बारे में लिखा था…

मैंने अन्ना को अपने चौथे सवाल में लिखा था-
स्वामी रामदेव जैसे ‘शुभचिंतकों’ से सतर्क रहें…शांतिभूषण जी और प्रशांत भूषण को साथ कमेटी में रखे जाने को लेकर जिस तरह रामदेव ने आपको कटघरे में खड़ा किया, वैसी हिम्मत तो सरकार ने भी नहीं दिखाई…


और अखबार ने छापा…
स्वामी रामदेव जैसे शुभचिंतकों से जितना सतर्क रहा जा सके उतना ही अच्छा हो…आखिर उनकी शिक्षा ही कितनी है कि शांतिभूषण और प्रशांत भूषण को कमेटी में रखे जाने का विरोध करें…रामदेव ने तो अन्ना तक को कटघरे में खड़ा किया…ऐसी हिम्मत सरकार ने भी नहीं दिखाई…


देखिए है न कितना उलट…मैंने कब स्वामी रामदेव की शिक्षा जैसा प्रश्न उठाया…लेकिन जो भी अखबार में लेख को पढ़ेगा वो तो यही समझेगा कि मैंने ही ये लिखा है…साथ ही ये भी आभास होता है कि रामदेव ने तो अन्ना तक को कटघरे में खड़ा किया…जबकि मैंने वो बात शांतिभूषण और प्रशांत भूषण के संदर्भ को देते हुए लिखी थी…लेकिन आभास ऐसा हो रहा है कि रामदेव ने किसी और मुद्दे पर अन्ना को कटघरे में खड़ा किया…

आपने सब पढ़ लिया…आप खुद ही तय कीजिए कि अखबारों की ये मनमानी क्या जायज़ है…क्या इसीलिए ब्ल़ॉगर चुप बैठे रहें कि अखबार हमें छाप कर हमारे पर बड़ी कृपा कर रहे हैं…क्या अपनी रचनात्मकता से ऐसा खिलवाड़ बर्दाश्त किया जाना चाहिए…अखबार कोई चैरिटी के लिए नहीं छापे जा रहे हैं…अखबार सर्कुलेशन और एड दोनों से ही कमाई करते हैं…अपने कमर्शियल हित साधने के लिए ही वो ब्लॉग से अच्छी सामग्री उठा कर अपने पेज़ों की वैल्यू बढ़ाते हैं…इससे उनकी कमाई बढ़ती है…फिर वो क्यों ब्लॉगरों को पारिश्रमिक देने की बात भी नहीं सोचते…ऊपर से ब्लॉगरों के लिखे का इस तरह चीरहरण…आज मेरे साथ हुआ, अनूप शुक्ला जी के साथ हुआ, राजीव तनेजा जी के साथ हुआ…कल और किसी के साथ भी हो सकता है…क्या ब्लॉगजगत को अखबारों की ये निरंकुशता रोकने के लिए एकजुट होकर आवाज़ नहीं उठानी चाहिए…