पिछले साल उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की पत्नी सलमाअंसारी के एक बयान को लेकर खूब हो हल्ला हुआ था।सलमा अंसारी ने कहा था कि हमारे देश में मां – बाप कोअपने यहां बेटी पैदा होते ही उसे जहर दे देना चाहिए।जाहिर है , यह सलमा अंसारी का आक्रोश था , जो इन तीखेशब्दों में फूट पड़ा था। उन्होंने देश में लड़कियों से होने वालेभेदभाव और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों परअपनी प्रतिक्रिया जताई थी। इस देश में कभी आरक्षण तोकभी पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं को पुरुषों के समानसंपत्ति के अधिकार की बात कर महिला सशक्तिकरण के बड़े- बड़े दावे जरूर किए जाते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत क्याहै , यह किसी से छुपी नहीं है।
पुरातनपंथी सोच
एक ही माता – पिता की संतान होने के बावजूद वारिस सिर्फ लड़के को ही क्यों माना जाता है ? लड़कियों सेभेदभाव घर पर ही शुरू हो जाता है। पुरातन काल से हमारे यहां ऐसी सोच चली आ रही है कि लड़का हीपरिवार के वंश को आगे बढ़ाएगा। आखिर लड़कियां वंश को आगे क्यों नहीं बढ़ा सकतीं ? इस सवाल पर देश मेंबहस क्यों नहीं छिड़ती कि कानून की दृष्टि से अगर लड़के और लड़की को एक समान अधिकार है तो फिर सिर्फलड़के को वारिस मानने का सवाल कहां से उठता है ? लड़कियों को पहला वारिस मानने में दिक्कत क्यों होती है।कोई इस पर सोचना भी पसंद नहीं करता कि विवाह के बाद लड़कियों को ही लड़के के घर क्यों जाना होता है।इसका उल्टा क्यों नहीं हो सकता ?
मरुमकथायम परंपरा
अपने देश में सिर्फ केरल ही एक ऐसा राज्य दिखता है , जहां मरुमकथायम परंपरा के मुताबिक महिलाओं के नामपर वंशावली चलने की मिसाल मिलती है। नायर राजसी खानदान से जुड़ी इस परंपरा में महिलाओं को वंश कावारिस बनने का अधिकार रहा है। इस परंपरा के तहत सिर्फ बहन या उनके बच्चे ही परिवार की संपत्ति के वारिसबनते हैं। सभी जानते हैं कि केरल में अधिकारों की दृष्टि से महिलाओं की जो स्थिति है , वह देश में और कहीं नहींहै। पुरुष – महिला लिंग अनुपात की बात की जाए तो बाकी देश में भले ही महिलाओं की संख्या पुरुषों केमुकाबले लगातार कम हो रही हो , लेकिन केरल में मामला उलटा है। यहां हर 1000 पुरुषों पर 1084 महिलाएंहैं। व्यावसायिक और सामाजिक दृष्टि से भी यहां महिलाएं अग्रणी हैं। केरल के इन नतीजों को देखते हुए बाकी देशमें भी विरासत की इसी परंपरा का अनुसरण क्यों नहीं किया जाता ?
हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में अभी सात साल पहले किए गए बहुप्रचारित संशोधन के बाद भी पारिवारिकसंपत्ति में महिलाओं को पुरुषों के साथ समानता का अधिकार हासिल नहीं हो पाया है। इसके कानून के तहतअगर कोई निस्संतान विधवा बिना वसीयत लिखे मर जाती है तो उससे जुड़ी हर चीज पर ससुराल वालों काकब्जा हो जाता है। यहां तक कि उस रकम पर भी , जो उस महिला ने जीवनपर्यंत नौकरी या स्वरोजगार सेजुटाई थी। अपवाद स्वरूप अगर उसे कोई संपत्ति अपने माता – पिता से मिली हो तो उपरोक्त परिस्थिति में वहउसके पिता के वारिसों को मिलेगी। दूसरी तरफ किसी विधुर की बिना वसीयत लिखे मौत होती है तो उसकीसंपत्ति पर उसके माता – पिता और परिवार का हक हो जाता है। इस सूरत में पत्नी के माता – पिता उस संपत्ति मेंसे फूटी कौड़ी के भी हकदार नहीं होते। एक ही परिस्थिति को अलग – अलग चश्मे से देखने की यह कैसी व्यवस्थाहै ?
हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान पुरुष सांसदों के बहुमत ने पुत्रियों को पैतृक संपत्ति ( मायके ) पर अधिकार देनेका विरोध किया था। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत पुत्रियों को पैतृक संपत्ति पर अधिकार नहींथा। लेकिन 2005 में संशोधन के जरिए कानूनी तौर पर उन्हें यह हक मिल गया। कुछ महिलाओं ने इस बदलावके बाद पैतृक संपत्ति पर दावे भी किए हैं। लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या अभी कम है , क्योंकि उन्हें अपनेपरिवार से संबंध बिगड़ने का डर रहता है। ईसाइयों और मुसलमानों के अपने अलग कानून हैं। अलग – अलगराज्यों के आदिवासियों के संपत्ति अधिकार उनके रीति – रिवाजों से तय होते हैं। राज्य भी अपने उत्तराधिकारकानून बना सकते हैं। यानी किसी महिला के संपत्ति अधिकार उसके मजहब , वैवाहिक स्थिति , राज्य औरजनजातीय पहचान के मुताबिक बदलते रहते हैं। जाहिर है , बराबरी के सिद्धांत को चोट पहुंचाने की कई वजहेंदेश में मौजूद हैं।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 4 (2) में जोत की जमीन का विभाजन रोकने के लिए अथवा जमीनकी अधिकतम सीमा तय करने के लिए पुत्री को जमीन की विरासत का अधिकार नहीं दिया गया। वे खेत में कामतो कर सकती हैं पर उसकी मालिक नहीं बन सकतीं। महिलाओं की इस मामले में क्या स्थिति है , यह 2000-01की कृषि जनगणना से साफ हो जाता है। इस जनगणना के मुताबिक लगभग 12 करोड़ लैंड होल्डरों में से महजएक करोड़ 30 लाख यानी 11 फीसदी महिलाएं हैं।
विरासत कानून के झोल
विवाह के बाद पति की व्यक्तिगत संपत्ति में आधा हिस्सा मांगने पर तर्क दिया जाता है कि पिता और पति , दोनोंकी संपत्ति का हक महिला को क्यों दिया जाए। पति की संपत्ति में आधा अधिकार वे उसकी मृत्यु के बाद ही पासकती हैं , अन्यथा उन्हें सिर्फ गुजारे का खर्च पाने का हक है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 23 के अधीनयदि किसी स्त्री को एक मकान विरासत में मिला है और उसमें उसके पैतृक परिवार के सदस्य रह रहे हैं तो उसेउस मकान में बंटवारा करने का कोई अधिकार नहीं है। वह उसमें रह भी तभी सकती है जब वह अविवाहित होया तलाकशुदा। इस प्रकार अनेक अपवाद 2005 के संशोधन द्वारा पुत्री को पैतृक संपत्ति में मिले उत्तराधिकार कोबेमानी बना देते हैं। साफ है कि महिलाओं को पहला वारिस बनाने जैसा क्रांतिकारी बदलाव लाए बिना महिलाओंकी स्थिति सुधरने की बात करना ख्याली पुलाव पकाने के सिवा कुछ नहीं है।
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यह लेख navbharat times के 16 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित हुआ है-
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