कुंठित और मानसिक विकृति के दो पिशाचों की वजह से एक फूल जैसी बच्ची को घोर यातना सहनी पड़ी…इन पिशाचों के लिए बड़ी से बड़ी सज़ा भी कम है…
लेकिन इसके आगे क्या…इन्हें सरेआम गोली से उड़ा भी दिया जाए तो क्या गारंटी के साथ कहा जा सकता है कि इस तरह के अपराध समाज में फिर नहीं होंगे…
क्या दरिंदों की दिल्ली कह देने से ही हमारी ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है…समस्या इससे कहीं बड़ी है…हमें सोचना होगा कि हमारे समाज में इस तरह के विकार क्यों पनप रहे हैं…हमें उसी जड़ पर चोट करनी चाहिए…
दिल्ली यूनिवर्सिटी में हर साल बाहर से हज़ारों छात्र (लड़कियां भी) अपना भविष्य संवारने के लिए एडमिशन लेने आते हैं…क्या वो सभी असुरक्षित हैं…
बार बार पूरी दिल्ली को दरिंदों या हैवानों की बस्ती बताने से बाहर से पढ़ने आई इन छात्राओं के घरवालों के दिलों पर क्या बीतती होगी…
जिस तरह पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती उसी तरह सारे पुलिस वाले भी शैतान नहीं होते…ऐसा नहीं होता तो वारदात के दो दिन में ही अपराधी नहीं पकड़े जाते…
आज चिंता से ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है…सभी नागरिक अपनी ज़िम्मेदारी को निभाए…आसपास असामान्य प्रवृत्ति का कुछ होता दिखे या कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखे तो हरकत में आ जाए…
खुद विरोध करने की स्थिति में हो तो ज़रूर करें…अन्यथा पुलिस को रिपोर्ट करें…सामूहिक रूप से पुलिस पर दबाव बनाएं…
ज़रूरत मेलोड्रामे की नहीं, बल्कि चीज़ों को अलग नज़रिये से देखने की है…हम बदलेंगे तो समाज बदलेगा…समाज बदलेगा तो ये देश बदलेगा…
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