जस्सी जैसा कोई नहीं…खुशदीप

ये 11 मार्च बड़ी खास थी…इस तारीख़ की शाम समर्पित
थी मेरे हीरो को…वो शख्स जिसे मैंने ज़िंदगी में कभी देखा नहीं…लेकिन उसकी
शख्सीयत के बारे में मैंने जितना सुना, वो उतना ही मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर छाता
गया…उसके बारे में मैंने जाना नहीं होता तो शायद आज मैं वो नहीं होता जो मैं
हूं…उसके किस्सों को नहीं सुना होता तो आज मैं अपने पारिवारिक कारोबार को ही
संभाल रहा होता…मैं जिस शख्स की बात कर रहा हूं, उसका नाम है- जसविंदर सिंह…हम
सबका प्यारा जस्सी…वो जस्सी जिसे 31 दिसंबर 1993 को काल के क्रूर हाथों ने हम से
छीन लिया था…महज़ 33 साल की उम्र में…

जस्सी आज होता तो तीन दिन बाद 15 मार्च को अपना
54वां जन्मदिन मना रहा होता…बीबीसी के पूर्व संवाददाता जस्सी के बारे में
ज़्यादा जानना चाहते हैं तो बीस साल पहले छपे मेरे इस लेख को पढ़ सकते हैं…



‘अन्याय को देख मर्माहत हो उठता था जस्सी’

(परवेज़ आलम भाई के फेसबुक वॉल से जस्सी का फोटो साभार)

बहरहाल आता हूं 11 मार्च पर…इस दिन जसविंदर
सिंह मेमोरियल ट्रस्ट की ओर से भारतीय जन-संचार संस्थान (
IIMC), दिल्ली में प्रथम वार्षिक व्याख्यान
का आयोजन किया गया…संस्थान के मिनी ऑडिटोरियम में हुए इस कार्यक्रम में बीबीसी
से जुड़े रहे और मीडिया प्रशिक्षक निकोलस न्यूजेंट  मुख्य वक्ता के तौर पर बोले…विषय था-
ब्रिटेन में फोन हैकिंग के बाद न्यूज मीडिया के क्रियाकलापों की
जांच के लिए गठित लेवेसन जांच आयोग की रिपोर्ट के भारतीय न्यूज मीडिया के लिए क्या
मायने हैं
?



व्याख्यान का विषय बड़ा गंभीर था…खास तौर पर
भारतीय मीडिया जिस दौर से गुज़र रहा है उसे देखते हुए…मीडिया का स्वतंत्र होना
भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है…लेकिन मीडिया बिना किसी निगरानी के निरकुंश हो
जाता है तो ये लोकतंत्र के लिए किसी त्रासदी से कम भी नहीं…सरकार के हस्तक्षेप
के बिना आत्म-नियमन की बात की जाती है…लेकिन मीडिया, खास तौर पर इलैक्ट्रोनिक
मीडिया ने आत्म-नियमन का जो चोला पहन रखा है, क्या वो अपेक्षित परिणाम दे पा रहा
है…

इस विषय पर मुख्य वक्ता निकोलस न्यूजेंट से पहले
प्रधानमंत्री के संचार सलाहकार पंकज पचौरी ने अपनी बात रखी…पंकज पचौरी ने भारत
में मीडिया को गंभीर संकट में बताया…उनके मुताबिक बिज़नेस मॉडल फेल हो रहा
है…अखबारों की प्रसार संख्या में गिरावट आ रही है…मीडिया संस्थानों का मुनाफ़ा
तेज़ी से घट रहा है…विज्ञापनों से होने वाली कमाई लगातार घट रही है…ऐसे में छदम
रेवेन्यू सिस्टम का सहारा लिया जा रहा है…प्रिंट मीडिया में सर्कुलेशन को साबित
करने वाले
IRS के आंकड़ों पर उंगली उठ रही है तो
इलैक्ट्रोनिक मीडिया के लिए टीआरपी की गणना करने वाले
TAM सिस्टम की विश्वसनीयता भी संदेह के घेरे में
है… पंकज ने एक और दिलचस्प बात बताई कि आज भी दूरदर्शन दूसरे चैनलों के मुकाबले
सात गुणा ज़्यादा देखा जाता है….

प्रधानमंत्री के संचार सलाहकार पंकज पचौरी ने
बताया कि संसदीय स्थाई समिति ने लेवेसन जांच आयोग की रिपोर्ट पर भारतीय मीडिया के
संदर्भ में विचार किया है…एक वर्किंग पेपर तैयार किया गया है…पेड न्यूज़ जैसे
अनैतिक आचरणों के संदर्भ में मीडिया के नियमन ज़रूरत जताई जाती है…लेकिन इसके
लिए कोई तैयार नहीं है…आत्म नियमन की दुहाई दी जाती है..दिल्ली हाईकोर्ट,
भारतीय प्रेस परिषद और संसदीय स्थायी समिति सब कह चुके हैं कि आत्म नियमन की
व्यवस्था काम नहीं कर रही है…फिर क्या रास्ता निकाला जाए…पंकज ने कहा कि वह
खुद भी मीडिया पर निगरानी के लिए आत्म-नियमन के पक्ष में हैं…लेकिन इस
आत्म-नियमन की जवाबदेही के लिए कोई मज़बूत सिस्टम बनना ज़रूरी है…इस संदर्भ में
पंकज ने भारतीय निर्वाचन आयोग और सेबी जैसी संस्थाओं का हवाला दिया…पंकज के
मुताबिक देश में नेता सबसे ज़्यादा निर्वाचन आयोग से और कारपोरेट सेबी से डरते
हैं…

पंकज पचौरी के बाद मुख्य वक्ता निकोलस न्यूजेंट
ने बोलना शुरू किया…बेबाक अंदाज़ में उन्होंने पहले ही साफ़ कर दिया कि वो
भारतीय प्रिंट मीडिया को तो लगातार फॉलो करते रहे हैं लेकिन इलैक्ट्रोनिक
मीडिया के बारे में वो ज़्यादा अवगत नहीं है…इसलिए लेवेसन जांच आयोग की रिपोर्ट
को लेकर भारतीय मीडिया के संदर्भ के मायने में ज़्यादा अधिकार से कुछ नहीं कह
सकते…हां उन्होंने ये ज़रूर कहा कि प्रधानमंत्री की स्पीच को कितना स्थान देना
है, ये तय करना मीडिया का काम है और ये उस पर ही छोड़ देना चाहिए…

निकोलस न्यूजेंट ने ब्रिटेन के संदर्भ
में कहा कि वहां प्रिंट मीडिया दम तोड़ने की ओर अग्रसर है…बिजनेस मॉडल को
जबरदस्त खतरा है…प्रिंट मीडिया का सर्कुलेशन लगातार घटता जा रहा है…स्पेस
सेलिंग के नए तरीके ढूंढे जा रहे हैं…ऐसे में गॉसिप और सनसनी के ज़रिए कारोबार
करने वाली टेबलायड कल्चर हावी हो रही है…जानकारी के लिए पब्लिक सर्वेन्ट्स को
रिश्वत दी जा रही है…
न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड प्रकरण के बाद मीडिया की इन अनैतिक गतिविधियों की जांच के लिए ही
लेवेसन जांच आयोग का गठन किया गया…खास तौर पर मीडिया और राजनेताओं के बीच बन गए
रिश्तों पर लेवेसन जांच आयोग ने चिंता ज़ाहिर की…यानि वहां भी आत्म नियमन के लिए
बनी प्रेस कम्पलेंट कमीशन कारगर नहीं रही…लेकिन सरकारी नियमन की व्यवस्था हो तो
वो खुद बड़ी समस्या साबित हो सकती है…ऐसे में संवैधानिक तौर पर समर्थित
आत्म-नियमन की व्यवस्था ही सबसे अच्छा विकल्प है…

खैर ये तो सब वो बातें हैं जो
व्याख्यान से संबंधित थीं…लेकिन अब फिर उस शख्स की ओर लौटता हूं जिसके नाम पर ये
सारा आयोजन हो रहा था…इस कार्यक्रम के आयोजन में ज़्यादातर लोग वही शामिल थे,
जिन्होंने जस्सी के साथ बीबीसी में काम किया था…उसकी ज़िंदादिली के बारे में सुनाने
के लिए सबके पास इतने किस्से थे कि पूरा दिन भी सुनाते रहते तो कम रहते…
बीबीसी की हिंदी सेवा की पूर्व प्रमुख
अचला शर्मा ने शुरुआत में कार्यक्रम की रूपरेखा रखते हुए जस्सी के पसंदीदा पंजाबी
कवि पाश की एक कविता का हवाला दिया…उनके भावुक शब्द ही ये गवाही देने के लिए
काफ़ी थे कि जस्सी के जाने के बीस साल बाद भी उसकी ज़िंदादिली को वो कितनी
शिद्दत के साथ महसूस करती है…
कार्यक्रम के मॉडरेटर (वरिष्ठ
पत्रकार-प्रशिक्षक) परवेज़ आलम ने जस्सी को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस नज़्म के साथ याद किया…

हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो: दिन के जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिक्खा है
जब जुल्म-औ-सितम सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
जब अर्ज़ ए-खुदा के काबे से 
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे

जस्सी के पत्रकारिता की शुरुआत के
दिनों के साथी एम के वेणु (द हिंदू के पूर्व वरिष्ठ संपादक)….या फिर बीबीसी में
जस्सी की नियुक्ति के सूत्रधार सतीश जैकब या विपुल मुद्गल…सभी के पास जस्सी के
बारे में सुनाने के लिए बहुत कुछ था…इस मौके पर बीबीसी से बरसों तक जुड़े रहे रामदत्त
त्रिपाठी और सुधा माहेश्वरी भी मौजूद रहे…बीबीसी में पिछले सात साल से कार्यरत
इकबाल अहमद की शिरकत भी खास रही…

कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण
उपस्थिति जस्सी की मां महेंद्र कौर, बहन डॉ.परमजीत कौर और बहनोई डॉ.ओंकार सिंह की रही…इस
मौके पर जसविंदर सिंह मेमोरियल ट्रस्ट की तरफ से
IIMC के दो छात्रों को हर साल छात्रवृत्ति देने का ऐलान किया
गया…पहले साल के लिए चुनीं गईं  दो
छात्राओं- सिंधुवासिनी (हिंदी पत्रकारिता) और हर्षिता (प्रसारण पत्रकारिता) को
जस्सी की माताजी ने खुद अपने हाथों से आधिकारिक-पत्र देकर आशीर्वाद दिया…

(फोटो : आनंद प्रधान सर के फेसबुक वॉल से साभार)

इस अवसर पर बड़ी संख्या में उपस्थित IIMC के छात्रों को वक्ताओं से सवाल पूछने का भी मौका मिला…कार्यक्रम
को सफल बनाने में
IIMC के कुलसचिव जयदीप भटनागर और प्रोफेसर
आनंद प्रधान के सहयोग को भी भुलाया नहीं जा सकता…
IIMC से लौटते वक्त मैं यही सोच रहा था कि आज की शाम कितनी सार्थक
रही…और रहती भी क्यों नहीं…पूरे कार्यक्रम की धुरी जस्सी जो था…जस्सी मेरा
हीरो…

Keywords:Jasvinder Memorial Trust
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Khushdeep Sehgal
11 years ago

सही कहा प्रवीण भाई…गीली लकड़ी की तरह सुलग कर ज़िंदगी भर धुंआ देते रहने से कहीं बेहतर है कि फूल की तरह थोड़ी तरह खिल कर अपनी खुशबू चारों तरफ बिखेर देना….

जय हिंद…

प्रवीण पाण्डेय

अपने हीरो की स्मृतियाँ गर्व भी दिलाती हैं और आँसू भी निकालती हैं।

Khushdeep Sehgal
11 years ago

चंद्र प्रकाश जी, मैं भी उसी मेरठ की मिट्टी से हूं, जिससे जस्सी था…ऊपर पोस्ट में मैंने एक लिंक दे रखा है…अन्याय को देख मर्माहत हो उठता था जस्सी…ये लेख मैंने जस्सी की पहली पुण्यतिथि पर लिखा था…आप उस पर क्लिक के बाद जूम कर आसानी से पढ़ सकते हैं…मेन मीडिया से ब्रेक के इन दिनों में सोशल मीडिया में अधिक सक्रियता, युवा पत्रकारों से संवाद, भारत के कई हिस्सों के भ्रमण आदि गतिविधियों से मैं जीवन के नए मायने समझ रहा हूं…वाकई ये सकारात्मकता कितनी सार्थक हो सकती है , ये मैं खुद अनुभव कर रहा हूं…कूप-मंडूक बन कर एक ही लाइन पर चलते रहना खुद को खत्म करने जैसा है…ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं…और इस मामले में जस्सी से बड़ी मिसाल और कौन हो सकता है…

जय हिंद…

chander prakash
11 years ago

खुशदीप भाई, जिस व्यक्तित्व (जसविंदर सिंह ) से आप इतने प्रभावित हुए , उस शख्स के बारे में और बहुत कुछ जानने की उत्कंठा भी जागृत हो उठी है । छोटी सी उम्र में उनके देहांत का क्या कारण था । और भी बहुत सी उनसे सम्बद्ध स्मृतियां आपके मन-मस्तिष्क में होंगी । यदि संभव हो तो उन पर भी प्रकाश डालें । वैसे भी ऐसे कार्यक्रम में जहां सतीश जैकब, विपुल मुद्गल, रामदत्त त्रिपाठी, सुधा माहेश्वरी और इकबाल अहमद जैसे नामवर नाम जुड़े हों तो जिज्ञासा और भी बढ़ जाती है ।

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