चवन्नी नहीं तो क्या चवन्नीछाप तो रहेंगे…Nostalgia…खुशदीप

आज चवन्नी के चलन का आखिरी दिन है…रिजर्व बैंक के आदेश के मुताबिक अब चवन्नी चलन में नहीं रहेगी…चवन्नी नहीं चलेगी लेकिन चवन्नीछाप ज़रूर रहेंगे…चवन्नी का नाम लेते ही करीब साढ़े तीन दशक पहले आई फिल्म खून पसीना का ये चवन्नीछाप गाना याद आ जाता है…राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के…चवन्नी का आज से एंटीक महत्व ही रह जाएगा…हो सकता है कि आपके पास भूले-बिसरे कुछ चवन्नियां पड़ी हैं तो आने वाले वक्त में उनकी अच्छी कीमत मिल जाए…चवन्नी के नोस्टेलजिया पर दो दिन पहले नवभारत टाइम्स में ओम अवस्थी जी का बड़ा अच्छा लेख पढ़ा था…बचपन में चवन्नी से जुड़ी आपकी कुछ यादें हैं तो इस लेख को पढ़ने से ज़रूर ताज़ा हो जाएंगी…

और खोटी हो गई चवन्नी…

ओम अवस्थी

गुल्लक से खनक कर गिरती थीं तो जमीं पर इतरा के लोटती थीं खुशियां। कभी चूरन के ठेलों पर तो कभी मेलों के झूलों पर चवन्नी में मिलती थीं खुशियां, पर अब चवन्नी हमसे हमेशा के लिए दूर जा रही है। चलन में तो पहले ही ‘चल बसी’ थी वह। सरकार ने बस अब उसकी मौत की औपचारिक तारीख तय कर दी है। 30 जून के बाद किस्सों-कहानियों में मीठी याद बनकर रह जाएगी चवन्नी।


वक्त अपने साथ बहुत कुछ बदल देता है। बदलाव की ऐसी ही बयार में चवन्नी ने कब अपनी रंगत खो दी, पता ही नहीं चला। लेकिन एक वक्त था, जब चवन्नी की हैसियत कुछ कम नहीं थी। वह पान-परचून की दुकान से लेकर सेठों की तिजोरियों तक का हिस्सा होती थी और उसे दुत्कार नहीं, दुलार की निगाह से देखा जाता था। लेकिन धीरे-धीरे वह लगातार बढ़ती महंगाई की मार नहीं झेल पाई और गैरजरूरी हो गई।


कैसे खोई रंगत


वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रफेसर यशपाल कहते हैं, ‘अब रुपए की कीमत नहीं रही, तो चवन्नी की बात क्या करें! वह दौर दूसरा था, जब जरूरतों की कीमत महज 25 पैसे हुआ करती थी। हमारे जमाने में (40 का दशक) में तो एक आने में भी मौज हो जाती थी। मुझे याद है, जब मैं दसवीं क्लास में था, तो मुझे हफ्ते में आने-दो आने मिल जाया करते थे। उन दिनों स्कूल के बाहर एक आने में दो जलेबी मिला करती थीं। अब तो दसवीं के बच्चों के लिए एक दिन के 100 रुपए भी कम हैं। यूनिवर्सिटी के दिनों में मुझे 25 रुपए महीने भर के खर्च के लिए मिला करते थे। उन दिनों यह एक अच्छी-खासी रकम हुआ करती थी। इतने में खाने-पीने और घूमने जैसे तमाम शौक आसानी से पूरे हो जाया करते थे। जाहिर है, तब चवन्नी की भी हैसियत होती थी। अब जमाना बदल गया है तो सिक्कों की शक्ल भी बदल रही है। पुराने गुम हो रहे हैं और नए मुकाम खोज रहे हैं।’


महंगाई की मार


असल में, महंगाई बढ़ने के साथ ही पैसे की कीमत कम हो रही है। एक रुपए से नीचे के सिक्कों का इस्तेमाल काफी कम हो चुका है। 25 पैसे में मार्केट में कोई भी चीज उपलब्ध नहीं है, इसलिए चवन्नी को मार्केट से हटाया जा रहा है। एचडीएफसी बैंक के चीफ इकॉनमिस्ट अभिक बरुआ बताते हैं कि किसी भी सिक्के को मार्केट में लाने और हटाने से पहले आरबीआई का करंसी डिविजन मार्केट पर नजर रखता है और मार्केट से मिलने वाले फीडबैक के आधार पर ही फैसला किया जाता है। महंगाई बढ़ने के कारण जिन सिक्कों की जरूरत खत्म हो जाती है, उन्हें मार्केट से हटा दिया जाता है। पहले 10 पैसे और 20 पैसे को भी मार्केट से इसी वजह से हटाया गया था। अब 30 तारीख को 25 पैसे के सिक्कों को मार्केट से पूरी तरह हटाया जा रहा है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में 50 पैसे के सिक्के भी मार्केट से हटा दिए जाएं। किसी भी सिक्कों को हटाने से पहले आरबीआई की ओर से औपचारिक घोषणा की जाती है। जो भी शख्स चाहे वह इन सिक्कों के बदले रिजर्व बैंक से चालू करंसी ले सकता है।


शायर मुनव्वर राणा चवन्नी पर कहते हैं, “मेरे लिए तो चवन्नी बड़ों का आशीर्वाद हुआ करती थी। घर से निकलते वक्त प्यार से दी जाती थी चवन्नी। सन 70 के दौर में जब मैं आठवीं में पढ़ा करता था, उन दिनों स्कूल के बाहर एक आने में एक प्लेट पकौड़े मिला करते थे। मैंने कई दफा चवन्नी में दोस्तों के साथ वहां दावत की थी। उन दिनों मैं पतंगबाजी का दीवाना था। मांझा लेने जाने पर 15 पैसे में चवन्नी के वजन के बराबर मांझा मिला करता था। 25 पैसे में पतंग और मांझा सब कुछ मिल जाता था। अब तो महंगाई ने पतंगों को भी आसमान से गुम कर दिया है। मुझे इस चवन्नी पर आफताब लखनवी का एक शेर याद आता है, ‘मेरे वालिद अपना बचपन याद करके रो दिए, कितनी सस्ती थी कि विद नमकीन चार आने में पी, पूरा बोतल मेरा भाई तन्हा ही पी गया, मैंने मजबूरी में लस्सी भर के पैमाने में पी।”


ठसक से थी खनकती


एक वक्त था, जब दादाजी के कुर्ते की जेब में खनकने वाली चवन्नी की भी क्या खूब ठसक हुआ करती थी। नुक्कड़ की परचून की दुकान पर दे आओ तो टॉफियों से जेब भर जाया करती थी। तीज-त्योहार के मौके पर घर में काम करने वाले ‘परजा लोगों’ को भी चवन्नी इनाम के रूप में दी जाती थी। आइसक्रीम और बर्फ के गोले एक-एक आने में मिल जाया करते थे। चाचा जी का बनारसी पान एक चवन्नी में पत्ते में लिपट कर महकता था। दीपावली पर पूजा के बाद आशीर्वाद के रूप में घर के हर सदस्य को एक-एक चवन्नी दी जाती थी। उन दिनों जेब खर्च के रूप में बच्चों को एक या दो आने ही दिए जाते थे। ऐसे में चवन्नी बड़ी रकम हुआ करती थी और बच्चे उसे संभाल कर रखते थे।


हिफाजत का ताबीज


चवन्नी सिर्फ एक सिक्का भर नहीं थी। उससे कई विश्वास जुडे़ थे। मां चवन्नी को हिफाजत का ताबीज कहा करती थीं। दूसरों की बुरी नजर और बलाओं से बचाने के लिए घर के बच्चों को चवन्नी ढलवाकर पहनाई जाती थी। बड़े-बूढ़ों का विश्वास था कि चवन्नी में इतनी ताकत होती है कि वह हमारी हिफाजत कर सकती है। जन्म के बाद अकसर बच्चों को चवन्नी इसलिए पहनाई जाती थी ताकि उन्हें डरावने सपने न आएं। चवन्नी को आत्मविश्वास बढ़ाने और मानसिक शांति देने के लिए पहनाया जाता था। हालांकि इस तरह की बातें कितनी सच थीं, यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता, पर विश्वास के आगे सब बेकार! 70 के दशक में चवन्नी ढलवाने का चलन खूब था। वक्त के साथ ही यह मान्यता भी पीछे छूट गई।


25 पैसे की दक्षिणा, सवा रुपये का प्रसाद


मंदिर में 25 पैसे की दक्षिणा से पुजारी जी के चेहरे पर रौनक आ जाया करती थी। लंबे वक्त तक चवन्नी की दक्षिणा चलन में रही, पर महंगाई बढ़ने पर दक्षिणा भी बढ़ गई। भगवान का भोग लगाते वक्त कहा जाता है कि प्रसाद कभी पूरे पैसे का नहीं खरीदना चाहिए। सवा रुपए का प्रसाद लंबे वक्त तक मंदिरों में चढ़ता रहा। पांच चवन्नियों या कहें कि एक रुपये के संग एक चवन्नी की कीमत मंदिरों में हमेशा ही खास रही। आज भी प्रसाद पूरे पैसे का नहीं चढ़ाया जाता। 11, 21 और 51 ने अब सवा रुपए के प्रसाद की जगह ले ली है। महंगाई इतनी बढ़ गई कि मंदिरों में भी कायदे बदल गए, लेकिन कहावत बरकरार है। प्रसाद बेशक कितने का भी चढ़ाया जाए लेकिन गाहे-बगाहे बड़े-बुजुर्गों के मुंह से निकल जाता है कि फलां काम होगा तो सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाएंगे।


जेएनयू के प्रफेसर पुष्पेश पंत कहते हैं, ‘महंगाई इस कदर बढ़ गई है कि आम आदमी के लिए जीना मुश्किल हो गया है। चवन्नी तो हमेशा से आम आदमी की निशानी रही है। सिनेमा हॉल में आगे की सीटों पर बैठने वाले दर्शक चवन्नी छाप हुआ करते थे। मिडल क्लास में खुशियों के मौकों पर चवन्नी लुटाने का रिवाज था। अब इस महंगाई के दौर में आम आदमी के लिए कुछ नहीं बचा है तो चवन्नी कैसे बच सकती थी? मुझे याद है 70 के दशक में जब मैं पढ़ा करता था, तब डीटीसी बसों का टिकट 10 पैसे हुआ करता था। चवन्नी में दो कप चाय मिल जाया करती थी। गरीब आदमी ढाबों पर चवन्नी में पेट भर खाना खा लिया करता था। अब महंगाई ने चवन्नी की तो जान ले ली, पर आम आदमी अब भी जिंदगी से जूझ रहा है।’


सियासत में भी खूब चला सिक्का


जमाना बदला तो चवन्नी कमजोर हो गई। अब चवन्नी इतिहास होने जा रही है, लेकिन एक दौर था जब यह इतिहास लिखा करती थी। सियासत के गलियारे में चार आने का सिक्का खूब चलता था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में चार आने ने अहम भूमिका निभाई। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त लोगों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए चार आने में सदस्यता अभियान चलाया था। उस समय चवन्नी और गांधी को लेकर एक नारा दिया गया था, ‘खरी चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की।’ गांधी के इस अभियान से काफी लोग जुड़े और कांग्रेस को आर्थिक मजबूती भी मिली। कुछ वक्त बाद यही चवन्नी इंदिरा गांधी के विरोध में मुखर हुई, आपातकाल के दौरान कई नारों में चवन्नी लोगों को तौलती रही। इस तरह से चवन्नी का अपना इतिहास तो है ही, यह ऐतिहासिक घटनाओं की गवाह भी रही है।


फिल्मी गीतों में भी गूंजी चवन्नी

चवन्नी की अहमियत को कई दफा फिल्मी पर्दे पर भी जगह दी गई। 60 के दशक में फिल्मी गानों में चवन्नी शब्द का खूब इस्तेमाल होता था। महबूब अपनी महबूबा के लिए चवन्नी उछालता नजर आता था। ‘खून पसीना’ फिल्म में आशा भोंसले का गाया ‘राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के…’ लंबे वक्त तक लोगों की जुबां पर चढ़ा रहा। ‘मिस मैरी’ में मोहम्मद रफी का गाया ‘देते जा चवन्नी-अठन्नी बाबू…’ ने भी फिल्म में जान डाली। इसके अलावा ‘चंदन’ में मुमताज का ‘मेरी चांदी की चवन्नी…’ तो कई महीनों तक सुर्खियों में रहा। बच्चों को भी इस गाने ने खूब लुभाया। ऐसा नहीं है कि सिर्फ 60 और 70 के दशक में फिल्मी गीतों के बोलों में चवन्नी का इस्तेमाल हुआ, बल्कि 21वीं सदी में आई ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में भी आने ‘चार आने…’ गीत काफी सराहा गया। फिल्मों ने चवन्नी की इन तमाम यादों को हमेशा के लिए संभाल कर रख लिया है।


चवन्नी की चांदी


देश में मीट्रिक प्रणाली लागू होने के बाद 1957 के आस-पास चवन्नी चलन में आई। 20 पैसे के सिक्के के चलन में आने के बाद 1968 में इसे बंद कर दिया गया, लेकिन 1972 में यह सिक्का फिर से शुरू हुआ। 1988 में स्टेनलेस स्टील के 25 पैसे के सिक्के बाजार में आए।

 सिनेमा हॉल के सबसे आगे की सीट का टिकट 25 पैसे में मिलता था। इन दर्शकों को ‘चवन्नी छाप’ की उपाधि भी दी जाती थी। दर्शक गानों पर खुश होकर चवन्नी खूब उछालते थे। इसी तरह नौटंकियों में चवन्नी उछालने का चलन भी खूब रहा।


एक वक्त था, जब चवन्नी में भरपेट खाना मिल जाता था। चवन्नी की अहमियत इतनी थी कि गुजरातियों में कंजूसी को लेकर कहा जाता था कि वे रुपए में पांचवीं चवन्नी को खोजते रहते हैं।

Khushdeep Sehgal
Follow Me
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
वाणी गीत
14 years ago

चवन्नी और अठन्नी अनौपचारिक रूप में तो कब से ही चलन से बाहर थी….
बहुत याद आएगी चवन्नी …
चवन्नी पर चकल्लस अच्छी लगी !

rashmi ravija
14 years ago

बहुत ही विस्तार और रोचक ढंग से लिखा है…मिस तो नहीं करेंगे चवन्नी को….पर उसके किस्से याद जरूर आएँगे.

राज भाटिय़ा

चवन्नी बंद करने का क्या तुक हे? समझ मे नही आया ? पुरे नही तो ९०% देशो मे एक पैसे का सिक्का भी चलता हे, यानि खुले पैसे खुब चलते हे, हमारे यहां १,२,५.१०.२०,५०,१००,२०० के सिक्के मिलते हे, ओर हम रोजाना हि खरीदारी मे इन सिक्को को चलन मे लाते भी हे, एक पैसा सब से ज्यादा चलता हे…..अगर हम खरीद दारी करे ओर वस्तू ९९ सेंट(पैसो की हो ओर हम एक सेंट लिये बिना चल पडे तो दुकान दार पीछे आता हे एक सेंट देने के लिये…

anshumala
14 years ago

चलन से तो काफी पहले ही जा चुकी थी उसकी शकल देखे भी जमान हो चूका है | आज जब हम घर में इस पर चर्चा कर रहे थे तो बिटिया पूछ बैठी की ये चवन्नी क्या होती है, हा अब तो उसे किस्से ही सुनायेंगे चवन्नी के |

निर्मला कपिला

किसी की इस चवन्नी से यादें जुडी हैं तो किसी को समस्या भी आ गयी । अब सरकार ने भी मंहगायी को देखते हुये उसका रेट बढाने के लिये चढावे या परशाद की कीमत बढ जाय्4ए उसके लिये ये विकल्प निकाला है। हाय रे गरीब अब सवा या सवा पाँच की जगह ग्यारह से कम मे काम नही चलेगा। इस चवन्नी ने तो गरीब की कमर ही तोड दी। चवन्नी से इतनी यादें जुडी हैं कि मैने जितनी चवन्नियाँ पडी थी सम्भाल कर रख ली। बेहतरीन पोस्ट। बधाई।

निर्मला कपिला

किसी की इस चवन्नी से यादें जुडी हैं तो किसी को समस्या भी आ गयी । अब सरकार ने भी मंहगायी को देखते हुये उसका रेट बढाने के लिये चढावे या परशाद की कीमत बढ जाय्4ए उसके लिये ये विकल्प निकाला है। हाय रे गरीब अब सवा या सवा पाँच की जगह ग्यारह से कम मे काम नही चलेगा। इस चवन्नी ने तो गरीब की कमर ही तोड दी। चवन्नी से इतनी यादें जुडी हैं कि मैने जितनी चवन्नियाँ पडी थी सम्भाल कर रख ली। बेहतरीन पोस्ट। बधाई।

प्रवीण पाण्डेय

उनका उत्पादन तो बन्द हो भी नहीं सकता है।

Rakesh Kumar
14 years ago

खुशदीप भाई, अभी तो चवन्नी ही बंद हो रही है.चवन्नी में मारी मौजों को भूल जाईयेगा.
समय आ रहा है जब अठ्ठनी,रुपया सब बंद हो जायेंगें.बस फिर हजार के नोट से ही काम चलायेंगें.
बाबा,रामदेव उन्हें भी बंद करने का आंदोलन चलाते रहें, तो फिर अच्छे अच्छे भी फाके खायेंगें.

संजय कुमार चौरसिया

bahut hi umda jaankaari , umda prastuti

दिनेशराय द्विवेदी

हाय!
क्या जमाना था वह भी? चवन्नी चवन्नी नहीं महारानी विक्टोरिया और मधुबाला की तरह हुआ करती थी। जिसे दूर से देखा जा सकता था। अपने पल्ले तो पड़ती थी पाइयाँ। तीन पाई का एक पैसा, चार पैसै का आना और चार आने की चवन्नी। उस वक्त तक चूड़ी बाजे में वह गाना भी नहीं बजा था … मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू …
क्या पता था एक दिन वो भी आएगा जब सपनों की रानी ऐसी जाएगी कि फिर कभी नहीं आएगी।

Rahul Singh
14 years ago

रोचक संदर्भ संग्रह और प्रस्‍तुति.

Udan Tashtari
14 years ago

चव्वनीचैप भी यहीं हैं और चव्वनीछाप भी…वो कहीं नहीं जा रहे.

डा० अमर कुमार

तुम बहुत याद आओगी, चवन्नी !

0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x