क्या आप सिविल वॉर के लिए तैयार हैं…खुशदीप

पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर चौंकिए मत…लेकिन आने वाले वक्त में ये हक़ीक़त बन सकता है…ये मैं नहीं कह रहा, ये स्टडी है यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के एक स्टडी ग्रुप की…स्टडी में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आकर कई देश सिविल वॉर या गृह युद्ध के हालात में पहुंच सकते हैं…जिस तरह धरती गर्म होती जा रही है उससे ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी चीज़ें इतनी महंगी हो जाएंगी कि उससे मारकाट जैसी नौबत आ सकती है…ये ख़तरा उन देशों को ज़्यादा है जिनकी अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर करती है…

भारत की 70 फीसदी आबादी का जीने का आधार भी खेत-खलिहान ही हैं…पिछले 10 साल में जहां समूची दुनिया से 7 फीसदी जंगल का सफाया हो गया वहीं भारत में दुनिया की औसत दर से ज़्यादा यानि 9 फीसदी जंगल पूरी तरह साफ़ हो गया…इसी दौर में 11 फीसदी खेती योग्य ज़मीन विकास और ऊर्जा की भेंट चढ़ गई… जितने स्पेशल इकोनामी जोन (एसईजेड) बनाने की दरख्वास्त सरकार के पास लगी हुई और उन्हें सब को मंजूरी मिल गई तो खेती की साढ़े चार फीसदी ज़मीन और कम हो जाएगी…ज़ाहिर है खेती का दायरा इसी तरह सिकुड़ता रहा तो अनाज और दूसरे कृषि उत्पादों की कीमतें आसमान छूने लगेंगी…और जैसे जैसे ये पहुंच से बाहर होती जाएंगी वैसे वैसे अराजकता की स्थिति बढ़ती जाएगी…

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की स्टडी के मुताबिक अगर धरती के तापमान में एक डिग्री का इज़ाफ़ा होता है तो अफ्रीका में 2030 तक सिविल वार होने का जोखिम 55 फीसदी बढ़ जाएगा…सब सहारा इलाके में ही युद्ध भड़कने से तीन लाख नब्बे हज़ार लोगों को मौत के मुंह में जाना पड़ सकता है…जाहिर है ग्लोबल वार्मिंग ने खतरे की घंटी बजा दी है…बस ज़रूरत है हमें नींद से जागने की…

पहले दो विश्व युद्ध इंसान की सनक के चलते ही हुए थे…तीसरे विश्व युद्ध का भी इंसान ही ज़रिया होगा…और उसने विकास की दौड़ में प्रकृति को ही दांव पर लगाकर विनाश की ओर बढ़ना भी शुरू कर दिया है…जब इंसान का वजूद ही मिट जाएगा तो फिर किसके लिए ये सारा विकास…

आज विश्व मंच पर भी ग्लोबल वार्मिंग सबसे गर्म मुद्दा है…अमेरिका ने ऐलान कर दिया है कि वो 2005 के लेवल को आधार मान कर 2020 तक कार्बन गैसों के उत्सर्जन में 17 फीसदी की कमी कर देगा…चीन भी साफ कर चुका है कि 2020 तक स्वेच्छा से 40 से 50 फीसदी प्रति यूनिट जीडीपी के हिसाब से ग्रीन हाउस गैसों में कटौती करेगा…

अमेरिका समेत तमाम विकसित चाहते हैं कि भारत और दूसरे विकासशील देश भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन मे कटौती की घोषणा करे…डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में 8 से 18 दिसंबर तक क्लाइमेट चेंज पर होने जा रहे सम्मेलन में ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का मुद्दा ही छाए रहने की उम्मीद है…

आगे बढ़ने से पहले आप सोच रहे होंगे कि ये ग्रीन हाउस गैसें आखिर हैं किस आफ़त का नाम…इस पर डॉ टी एस दराल ने पिछले दिनों अपनी एक पोस्ट में बड़े आसान शब्दों में महत्वपूर्ण जानकारी दी थी…उसी को मैं यहां रिपीट कर रहा हूं….

ज़रा गौर कीजिये, कहीं आप ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा तो नही दे रहे —

ग्रीन हाउस के बारे में आपने सुना ही होगा कि शीशे या प्लास्टिक के बने कमरे में पौधे उगाने के काम आते हैं ये…सूरज की किरणों से पैदा हुई गर्मी से ग्रीन हाउस के अंदर की हवा गर्म हो जाती है…और ये उष्मा ग्रीन हाउस के अंदर ही कैद रहती है…बाहर नहीं निकल पाती…इस प्रभाव को ही कहते हैं… ग्रीन हाउस इफैक्ट…कुछ इसी तरह का माहौल होता है , हमारी पृथ्वी पर…यानि पृथ्वी की सतह पर कुछ गैसों की एक परत सी होती है, जो सूर्य की किरणों से पैदा हुई गर्मी को वायु में जाने से रोकती हैं…इससे धरती का तापमान एक निश्चित स्तर पर बना रहता है…अगर ये गेसिज न होती तो हम आज भी हम आइस एज में रह रहे होते.


ग्रीन हाउस गेसिज : धरती की सतह पर जो गैस पाई जाती हैं, वे हैं —वाटर वेपर, कार्बन डाई ओक्स्साइड, मीथेन ,नाइट्रस ओक्साइड, और फलुरोकार्बंस… अब इन गैसों की मात्रा बढ़ने से जो उष्मा ट्रैप्ड होती है, उससे धरती का तापमान धीरे धीरे बढ़ रहा है…इसी को कहते हैं, ग्लोबल वार्मिंग…

इन गैसों के बढ़ने के कारण हैं –सांस लेने से , कोयला, तेल और पेट्रोल के जलने से… पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से CO2 पैदा होती है…चावल की फसल उगाने से , पशु पालन से और लैंड फिल साइट्स से मीथेन गैस पैदा होती है…नाइट्रोजन युक्त खाद, सीवेज ट्रीटमेंट से और समुद्र से नाइट्रस ऑक्साइड गैस पैदा होती है…एयर कंडीशनर और रेफ्रीजेरेटर्स में क्लोरोफ्लुरोकार्बंस पैदा होते हैं, जो ओजोन डिप्लीशन करते हैं…


इस तरह आधुनिक युग की सुख सुविधाएँ और सम्पन्ताएं ही आज इंसान की दुश्मन बन गयी हैं…एक और समाचार से पता चला है की भारत की पर कैपिटा एमिशन रेट अमेरिका के मुकाबले बहुत ही कम है…यानि विकसित देश ही असली गुनाहगार हैं…

ऊपर से तुर्रा ये कि अमेरिका ही ग्रीन हाउस गैसों को मुद्दा बनाकर भारत के कान उमेड़ने में सबसे आगे हैं…अमेरिका और अन्य विकसित देशों का कहना है कि भारत जैसे विकासशील देश अपने-अपने खास फंड बनाएं जिसका इस्तेमाल सिर्फ ग्रीन हाउस गैसों में कटौती लाने के लिए किया जाए…दूसरी तरफ भारत की दलील है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए अमेरिका और विकसित देश ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं…फिर उनके किए-धरे की सज़ा भारत जैसे देश क्यों भुगतें…अगर फंड बनाना ही है तो अमेरिका और विकसित देश अपने पैसे से ही उसका इंतज़ाम करे…बहरहाल इसी मुद्दे पर कोपेनहेगन में गर्मागर्म बहस छिड़ने के पूरे आसार हैं…अमेरिका अब चीन का हवाला देकर भारत पर दबाव बढ़ा सकता है कि जैसे उसने ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का ऐलान किया है वैसे ही कदम भारत और अन्य विकासशील देश भी उठाएं…चीन की तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का झुकाव चौंकाने वाला है…भारत-पाकिस्तान संबंधों को सामान्य बनाने के लिए ओबामा बीजिंग जाकर चीन को कोतवाल पहले ही बना आए हैं…अब पर्यावरण को ढाल बनाकर भारत को घेरने की ये अमेरिका और चीन की नई रणनीति तो नहीं है…भारत को ऐसे हालात में बेहद सतर्क होकर चलने की ज़रूरत है…ये ठीक है कि ग्लोबल वार्मिंग पूरे विश्व के साथ भारत के लिए भी बड़ा खतरा है…लेकिन इस मामले में हमारी स्वतंत्र नीति होनी चाहिए…किसी दबाव में आकर हम कोई फैसला न लें…हां…हिमालय, ग्लेशियर, गंगा, यमुना भारत मां के गहने हैं…इन्हें बचाकर रखना हर भारतीय का कर्तव्य है…हम अपनी ओर से इन्हें जितना कम से कम दूषित करें, उतना ही हमारा अस्तित्व भी बचा रहेगा… ये लड़ाई हमारी अपनी है…हमें अपने आप ही लड़नी है…वाशिंगटन या बीजिंग से कोई टॉम, डिक, हैरी आकर न समझाए कि हमें क्या करना है….

स्लॉग ओवर

दिमाग शरीर का सबसे अहम हिस्सा होता है…

24 घंटे, 365 दिन ये एक्टिव रहता है…

इंसान के पैदा होते ही ये काम करना शुरू कर देता है…

और…

इंसान की शादी होने तक ये काम करता रहता है…

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