राष्ट्रपति रबड़ स्टांप नहीं…
डॉ अंबेडकर ने कहा था- “राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रतीक है।” लेकिन देश की राजनीति में जिस तरह मूल्यों का पतन हुआ है उसमें राजभवन तो राजनीति के अखाड़े बनते ही जा रहे हैं, स्वार्थ की पट्टी आंखों पर बांध कर चलने वाली पार्टियों की नज़र से राष्ट्रपति भवन भी अछूता नहीं रहा है। जिस देश में सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ ज़ाकिर हुसैन जैसी विभूतियों ने राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया, उसी पद पर शिवराज पाटिल जैसे नेता को लाने की भी कोशिश की गई थी। वो शिवराज पाटिल जिन्हें गृहमंत्री पद पर नाकामी की वजह से इस्तीफा देना पड़ा था। अगर शिवराज पाटिल के नाम को लेफ्ट ने मंजूरी दे दी होती तो शायद प्रतिभा पाटिल की जगह वो ही देश के राष्ट्रपति होते। दुर्भाग्य से यूपीए और लेफ्ट ने तब ये भी तय किया कि देश में राष्ट्रपति पद के लिए उसी शख्स को उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए जिसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि रही हो। यानि भविष्य में डॉ एपीजे अब्दुल कलाम जैसे राजनीति से इतर कोई व्यक्ति राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनना चाहता है तो उसकी राह नामुमकिन नहीं तो मुश्किल बहुत होगी।
आखिर राष्ट्रपति पद के देश के लिए मायने क्या है ? संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति में आखिर क्या शक्तियां निहित की थीं। संविधान सभा के पास लोकतांत्रिक गणतंत्र के तौर पर भारत के लिए सरकार की व्यवस्था चुनने के लिए तीन विकल्प थे। पहला- अमेरिकी राष्ट्रपतीय व्यवस्था, दूसरा-ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र का वेस्टमिंस्टर मॉडल, तीसरा- निर्वाचित कार्यपालिका का स्विस मॉडल।
काफी विचार विमर्श के बाद संविधान सभा ने भारतीय हालात के लिए ब्रिटिश वेस्टमिंस्टर मॉडल को सबसे उपयुक्त माना। 4 नवंबर 1948 को डॉ अंबेडकर ने विस्तृत बयान में साफ़ किया-“अमेरिकी और स्विस सिस्टम स्थिरता ज़्यादा देते हैं लेकिन जवाबदेही कम सुनिश्चित करते हैं। जबकि ब्रिटिश मॉडल जवाबदेही ज़्यादा देता है लेकिन स्थिरता कम देता है।”
सरकार का ब्रिटिश मॉडल तो चुना गया लेकिन साथ ही लोकतांत्रिक गणतंत्र के लिए राष्ट्रपति की भी व्यवस्था की गई जिसकी भूमिका कमोवेश इंग्लैंड के नरेश जैसी रखी गई। इस पर जस्टिस कृष्णा अय्यर ने अपने खास चुटीले अंदाज में सवाल भी किया था- “क्या राष्ट्रपति भवन भारतीय बकिंघम पैलेस है या ये इसके (बकिंघम पैलेस) और अमेरिका के व्हाइट हाउस के बीच रास्ते में बना कोई हाउस है?”
इस सवाल का जवाब डॉ अंबेडकर के भाषण से मिलता है जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति की पदवी का ये अर्थ नहीं है कि उसे अमेरिका के राष्ट्रपति जैसी कोई शक्ति मिली हुई है। सिर्फ नाम के सिवा अमेरिकी और भारतीय राष्ट्रपति के बीच और कुछ भी नहीं मिलता। भारत के राष्ट्रपति की स्थिति अंग्रेजी संविधान के मुताबिक इंग्लैंड के नरेश जैसी है। वो राष्ट्र का प्रमुख है लेकिन देश को शासित नहीं करता। साथ ही राष्ट्रपति सिर्फ दिखावे का ही प्रमुख नहीं है। राष्ट्रपति के लिए कई अहम सांविधानिक दायित्व निर्धारित हैं। सामान्यतया राष्ट्रपति स्वतंत्र रूप से कदम नहीं उठाता। उसे कैबिनेट की सलाह और मदद से ही अपने दायित्वों को निभाना होता है। संसद के दोनों सदनों से कोई बिल पारित होकर आता है तो राष्ट्रपति को उसे मंज़ूरी देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। हां, राष्ट्रपति चाहे तो उस बिल को पुनर्विचार के लिए ज़रूर लौटा सकता है। लेकिन दोबारा बिल उसी स्वरूप में राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो राष्ट्रपति को उस पर दस्तखत करने ही होंगे।
गठबंधन राजनीति के इस दौर में राष्ट्रपति से बहुत सतर्क भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। नेताओं के स्वार्थी अवसरवाद और सिद्धांतहीन तौर-तरीकों ने राष्ट्रपति भवन को और अहम बना दिया है। जस्टिस कृष्णा अय्यर के मुताबिक राष्ट्रपति तीन अहम मौकों पर अपनी स्वतंत्र ताकत का इस्तेमाल कर सकता है-
1. प्रधानमंत्री की नियुक्ति- लेकिन राष्ट्रपति का ये अधिकार इससे बंधा है कि प्रधानमंत्री बनने वाला व्यक्ति लोकसभा में बहुमत रखता हो।
2. सदन में अल्पमत में आने के बावजूद कोई सरकार इस्तीफ़ा देने से इनकार करे तो राष्ट्रपति के पास उसे तत्काल बर्खास्त करने का अधिकार है।
3. सदन को भंग करना। लेकिन ये प्रधानमंत्री की सिफारिश से ही किया जा सकता है।
राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 217 (3) के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की आयुसीमा तय करने का भी विशेषाधिकार है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को नियुक्त किए जाने में भी राष्ट्रपति की भूमिका अहम होती है। संघ लोक सेवा आयोग के कामकाज में भी राष्ट्रपति का निश्चित रोल है।
क्रमश:
(कल की कड़ी में पढ़िएगा कि किस तरह पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद 26 जनवरी 1950 को शुभ न मानते हुए गणतंत्र लागू करने के हक़ में नहीं थे…लेकिन नेहरू इसी तारीख पर अड़ गए थे…आखिर चली नेहरू की ही)
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बेहतरीन श्रृंखला शुरू की है.
पिताजी का आलेख ढुंढने का प्रयास कर रहा हूं।
स्वागत है ….
सही मौके पर आई है आपकी यह श्रंखला … आभार और हार्दिक शुभकामनाएं !
जय हिंद !
prateeksha hai
अगली कड़ी का इन्तजार.
स्वागत योग्य श्रंखला ..
जो राष्ट्रपति सरकार द्वारा चुना जाता है जो सरकार के ही राजनितिक दल का एक सदस्य होता है वो क्या अपने अधिकारों का प्रयोग करेगा वो तो बस किंग मेकर के इशारो पर ही चलेगा |
अतिरिक्त ज्ञानवर्द्धन हेतु आपकी इस श्रृंखला का इसके समापन तक इन्तजार रहेगा ।
सोचने वाला आलेख्।
क्या यार …??इत्ती सी बात नहीं पता !
कैलेंडर क्यों नहीं देखते …पता चल जाएगा !
जिस तरह टी एन शेषन से पहले मुख्य चुनाव अधिकारी के महत्व को कोई नहीं समझता था। उसी तरह डॉ एपीजे कलाम से पहले राष्ट्रपति पद को रबर स्टैंम्प ही माना जाता था।
फ़िर भी संवैधानिक दायरे में रहकर राष्ट्रपति अपनी मनवा सकते हैं,ऐसा लगा।
ज्ञान वर्धक लेख ले लिए आभार
बड़ी लम्बी बहस है, सत्ता के शीर्ष पर दो व्यक्ति संभव नहीं हैं।
राष्ट्रपति के पद का राजनीतिकरण हो गया है… राजेंदर जी के बाद कलाम साहब ही राष्ट्रपति के पद को गरिमा दिला पाए…
इस श्रंखला का स्वागत है।
यह श्रंखला बहुत जरूरी है खुशदीप भाई ! हर चौथा भारतीय इस बारे में लगभग अज्ञान है ! हार्दिक शुभकामनायें !
राष्ट्रपति देशवासियों के लिए क्या मायने रखते हैं , सिर्फ कलाम जी के राष्ट्रपतित्व काल में ही देखा , वर्ना तो वे सिर्फ एक हस्ताक्षर ही होते हैं ..
रोचक रहेगी ये श्रृंखला !