इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है…खुशदीप

सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यों है…
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है….

पहले लिंक पर इस गीत को सुन लीजिए….फिर जो मैं इस पोस्ट में कहने जा रहा हूं, उसका दर्द अच्छी तरह समझा जा सकेगा…1979 में आई फिल्म गमन में फारूख शेख उत्तर भारत से मुंबई जाकर टैक्सी चलाकर गुज़ारा करते हैं…कल महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने फरमान जारी किया है कि मुंबई में टैक्सी वही चला सकेगा जो पंद्रह साल से मुंबई में रह रहा हो, मराठी जानता हो…बाल ठाकरे या राज ठाकरे मराठी माणुस की ज़मीन पर खुल कर राजनीति करते है…उसी मराठी माणुस को साधने के लिए कथित राष्ट्रवादी पार्टियां कांग्रेस और एनसीपी भी पीछे नहीं
है…लेकिन क्या मराठी माणुस बनाम उत्तर भारतीय का राग अलाप कर नफ़रत के बीज बोने वाले राजनीति के इन मठाधीशों ने कभी मुंबई से भी पूछा है कि वो क्या चाहती है…क्या मुंबई के दो पैरों में से एक पैर काट देने के बाद मुंबई उसी रफ्तार से दौड़ सकती है जिसके लिए वो जानी जाती है…

कहते हैं मुंबई कभी सोती नहीं…यहां की रफ्तार कभी थमती नहीं…यहां की चमक-दमक सिल्वर स्क्रीन पर उतरती है तो दूर बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश में बैठे बेरोज़गार युवक की आंखे चौंधियाने लगती हैं…फिर वही युवक सपनों की दुनिया का दिमाग में ख़ाक़ा बनाकर मुंबई की ओर खिंचा चला आता है…इस उम्मीद में कि यहां उसे पैसा, शोहरत सभी कुछ मिलेगा…अभाव की ज़िंदगी के काले सच पर परदे की रंगीनियों का सफेद झूठ भारी पड़ता है…

लेकिन मुंबई में जीने की जद्दोजहद का सच सपने देखने जैसा आसान नहीं है…यहां की कड़वी हक़ीक़तें इक लम्हा उम्मीद जगाती हैं तो दूसरे ही लम्हे इंसान को तोड़ कर रख देती हैं…लेकिन इस सब के बीच भी ज़िंदगी कहीं रूकती नहीं, चलती रहती है…मुंबई का मराठी माणुस हो या उत्तर भारत से आया कोई भैया…सब को जीने के लिए मुंबई से कुछ न कुछ मिलता रहता है…किसी को कम तो किसी को ज़्यादा…लेकिन ये ज़्यादा पाने की कशमकश ही टकराव को ज़मीन देती है…इस सब को जानने के बावजूद कि स्थानीय और बाहरी की ज़िंदगी आपस में इतनी गुथी हुई है कि एक-दूसरे के बिना दो कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता…भला वो कैसे बस आपको इसके लिए एक दो नज़ीर देता हूं…

गुड मार्निंग मुंबई कहने के लिए बेड टी की ज़रूरत ज़्यादातर लोगों को होती है…लेकिन ये चाय की प्याली बिना दूध के बन नहीं सकती…और मुंबई के बड़े हिस्से को दूध उत्तर भारत के लोग ही मुहैया कराते हैं…मुंबई की मशहूर जोगेश्वरी डेरी में छह सौ दूध वाले हैं और ये सभी के सभी उत्तर भारतीय है…यहां तीन हज़ार भैंसों से तीस हज़ार लीटर दूध रोज़ आसपास के घरों में पहुंचता है…कमोवेश यही सूरत मुंबई की दूसरी डेरियों की भी है….

अगर मुंबई को पाकसाफ़ दिखना है तो यहां के बाशिंदों के कपड़े भी झकाझक बेदाग़ दिखना ज़रूरी है…यही कपड़े साफ़धुलने के लिए धोबी तलाव जाते हैं…वहां कपड़े धोने वाले दस हज़ार लोगों में से तीन-चौथाई से ज़्यादा उत्तर भारतीय हैं…मुंबई को रफ्तार यहां की टैक्सियां देती हैं…और इन टैक्सियों को रफ्तार देने के लिए एक्सीलेटर पर जिन लोगों के पैर पड़ते हैं, उनमें भी एक बड़ा हिस्सा उत्तर भारतीयों का है…

मुंबई की इस कॉस्मोपालिटन ज़िंदगी का संदेश साफ़ है…मराठी माणुस बनाम उत्तर भारतीय का सवाल मुंबई के आम आदमी से ज़्यादा घाघ राजनेताओं की ज़रूरत है…इस सब के बीच मुंबई का खुद का सवाल है…इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों हैं, आइना हमें देखकर हैरान सा क्यों है….

(NB…आपसे निवेदन है कि मैंने…किस मिट्टी के बने होते हैं जननायक…वाली अपनी पिछली पोस्ट पर पत्रकारिता के धर्म, जननायक, गांधी परिवार, वंशवाद, राहुल गांधी की भूमिका के बारे में पोस्ट जितनी लंबी दो टिप्पणियों में अपनी बात साफ की है…उस पर प्रवीण शाह भाई की टिप्पणी भी आई है…मुझे अच्छा लगेगा यदि आप उस पोस्ट पर दोबारा जाकर मेरे विचार जानेंगे…वसंत पंचमी की आप सबको बहुत बहुत बधाई…)