आपको पता ही क्या है…

आपको पता ही क्या है…कौन से ज़माने में रह रहे हो…ज़रूरी है हर बात में टांग अड़ाना…चुपचाप नहीं बैठे रह सकते… भगवान का ध्यान लगाओ, भगवान का…आपको इस उम्र में किसी से क्या लेना-देना…ये वो जुमले हैं जो आज के दौर में बुज़ुर्गों को अक्सर सुनने को मिल जाते हैं…ये कटु वचन उन्हीं जिगर के टुकड़ों से सुनने को मिलते हैं जिनको बड़ा करने के लिए पूरी ज़िंदगी गला दी…ये ठीक है कि आज जो लिखाई-पढ़ाई का ताम-झाम है, करियर को जिस तरह संवारा जा सकता है, वैसी सुविधाएं बीते दौर में नहीं थीं…चार किताबें ज़्यादा पढ़ लेने का ये मतलब नहीं कि सर्वज्ञानी हो गए…बाल पका कर जो तज़ुर्बा हासिल किया जाता है वो बड़े से बड़ा इंस्टीट्यूट भी नहीं सिखा सकता…ऐसे ही स्वयंभू सर्वज्ञाताओं के लिए कोई शायर मियां क्या खूब कह गए हैं…

हम उन किताबों को क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर बेटे बाप को ख़ब्ती समझते हैं

मुझे खुशी है कि मैंने जिस मुद्दे को बहस के लिेए रखा, उस पर गंभीरता से चिंतन-मनन हुआ…मेरी पोस्ट पर कुछ बेहद सधी और विचारशील प्रतिक्रियाएं आईं, उनमें से दो को मैं यहां रिपीट कर रहा हूं. जी के अवधिया साहब लिखते हैं-
किसी भी कृत्य के पीछे विचार होता है. हम अपने विचार के अनुसार ही कार्य करते हैं. विचार संस्कार से बनते हैं और संस्कार शिक्षा से. बुजर्गों की अवहेलना करना भी हमारा एक कृत्य है जिसके मूल में हमारी शिक्षा ही है. अपने बड़े बुजर्गों के सम्मान करने की हमें शिक्षा ही नहीं दी जाती. हमारे पास हमारी अपनी कोई शिक्षा नीति नहीं है, हम तो विदेशियों की बनाई शिक्षा नीति के अनुसार चलते हैं. एक शिशु को उसके युवा होते तक केवल वही शिक्षा दी जाती है जो उसे पश्चिम की ओर ढकेले, भारतीयता को विस्मृत कर दे और परिणामस्वरूप वह भौतिकता में लिप्त हो जाए…

डॉ. टी एस दराल लिखते हैं-
बुजुर्गों का एकाकीपन, समाज की बदलती हुई तस्वीर का ही परिणाम है. आजकल की भाग दौड़ की जिंदगी में हम बुजुर्गों के प्रति अपना फ़र्ज़ भूल जाते हैं. हम यह भी भूल जाते हैं की एक दिन हमें भी बूढा होना है. माता- पिता की सेवा करना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है. हालाँकि इसके लिए कुछ त्याग और सहनशीलता की भी आवश्यकता होती है जो आज की युवा पीड़ी में लुप्त होती जा रही है...

अवधिया जी और दराल सर अपनी जगह बिल्कुल ठीक हैं, लेकिन जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी तरह इस मुद्दे का भी दूसरा पक्ष है..इसे संगीता पुरी जी ने अपनी टिप्पणी में बड़े सशक्त ढंग से उठाया है…संगीताजी का कहना है कि क्या हमेशा सारा क़सूर बच्चों का ही होता है…बज़ुर्ग क्या कभी गलत नहीं होते…सवाल पूरी तरह वाज़िब है…लेकिन इस पहलू पर विस्तार से जाने के लिेए अलग से पूरी पोस्ट की ज़रूरत है..कल मैं अपनी पोस्ट पर संगीताजी की टिप्पणी को यथावत रखने के साथ बहस को आगे बढ़ाने की कोशिश करूंगा…तब तक ब्लॉगर्स भाइयों से आग्रह है कि अगर वो इस मुद्दे पर अपनी राय सबके साथ बांटना चाहते हैं, तो मुझे भेज दें…बहस सार्थक नतीजे पर तभी पहुंचेगी जब सभी खुलकर अपनी बात रखें…
चलिए बहुत गंभीर बातें हो गईं, अब स्लॉग ओवर आपका इंतज़ार कर रहा है…

स्लॉग ओवर
दो स्कूल-मास्टर साइकिल से बातें करते हुए स्कूल से घर लौट रहे थे. रास्ते में बिड़लाजी की फैकट्री भी आती थी. एक मास्टर रोज बड़ी हसरत भरी नज़र से बिड़लाजी की फैक्ट्री को देखता और फिर ठंडी सांस लेता और घर की राह पकड़ लेता..एक दिन दूसरे मास्टर से रहा नहीं गया और उसने पूछ ही लिया, क्यों भाई माज़रा क्या है..ये तू बिड़लाजी की फैक्ट्री को रोज़ ऐसे क्यों देखता है…ये सुनकर पहला मास्टर बोला…यार तुझे क्या बताऊं..अगर ऊपर वाला मुझे बिड़लाजी की सारी फैक्ट्रियां दे दे, सारा बिज़नेस दे दे तो मैं बिड़लाजी से ज़्यादा कमा कर दिखा दूं…इस पर साथी मास्टर ने मखौल के अंदाज़ में कहा…भई ये कैसे हो सकता है…तूने बहुत तीर भी मारा तो बिड़लाजी जितना ही कमाएगा, भला ज़्यादा कैसे कमा लेगा…इस पर पहला मास्टर तपाक से बोला…क्यों साथ दो ट्यूशन नहीं करूंगा…