राजनीति की गंदगी से आज़िज़ देश का हर नागरिक सिस्टम में सफ़ाई चाहता है…अब ये सफ़ाई हो तो हो कैसे…अन्ना का दबाव बिल्कुल सही है कि देश की तकदीर तय करने का काम नेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता…अब जनता के अपने नुमाइंदों की भी निर्णय की प्रक्रिया में भागीदारी होनी चाहिए…यहां सरकार का तर्क हो सकता है कि उन्हें भी तो देश की जनता ने चुन कर ही दिल्ली भेजा है…लेकिन इस सवाल को ही गौर से देखें तो उसी में जवाब छुपा है…
जंतर-मंतर की मुहिम यही तो चाहती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा कटखन्ना सिस्टम बने कि कहीं भी कोई नेता-नौकरशाह भ्रष्ट आचरण करता दिखे तो उसके कपड़े पूरी तरह फाड़ कर नंगा कर दे…ताकि फिर कोई दूसरा नेता ऐसी ज़ुर्रत न कर सके…बस इस कटखन्ने सिस्टम को बनाने के लिए ही जनता के बीच से ही ईमानदार, बेजोड़ साख वाले अच्छे लोगों की आवश्यकता है….
जो भी इस मुहिम के लिए चुने जाएं, उनसे अन्ना शपथपत्र लें कि वो खुद कभी सत्ता की राजनीति नहीं करेंगे…कभी कोई लाभ का पद नहीं स्वीकारेंगे…न ही अपनी औलाद या भाई-भतीजों को आगे बढ़ाने के लिए अनैतिक रास्ते अपनाएँगे…अगर शपथ-पत्र देकर भी कोई ऐसा आचरण दिखाता है तो जनता को फिर अपने आप ही उससे सुलटने का अधिकार हो…
अन्ना की मुहिम देश में पहली गैर राजनीतिक मुहिम नहीं है जिसे जनता का अपार समर्थन मिला…याद कीजिए अस्सी के दशक के आखिर में भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले महेंद्र सिंह टिकैत का मेरठ कमिश्नरी का घेराव…हज़ारों किसान अपने पशु आदि लेकर दिन-रात कमिश्नरी पर आ डटे थे…उस वक्त टाइम मैगजीन ने भी टिकैत को महात्मा टिकैत बताते हुए स्टोरी की थी…टिकैत ने भी नेताओं को अपने मंच पर आने से प्रतिबंधित किया था…अगर कोई नेता टिकैत से मिलने की बहुत ज़्यादा इच्छा जताता भी था तो उसे भी आम लोगों की तरह ही लंबी लाइन में लगकर टिकैत से मिलने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता था…वीपी सिंह और राज बब्बर को तो मैंने खुद अपनी आंखों से ऐसे ही लाइन में लगे हुए देखा था…टिकैत जब तक गैर राजनीतिक रहे, लोगों के दिल में बने रहे…लेकिन बाद में वो भी राजनीति के जाल में उलझने से बचे नहीं रह सके…वहीं से उनका पतन शुरू हो गया…
अन्ना को भी टिकैत से सीख लेते हुए ये ध्यान देने की ज़रूरत है कि उनके आस-पास कौन लोग हैं…कल सत्ता की ज़रा सी चाशनी देखकर उनकी जीभ लपलपाने तो नहीं लगेगी…सत्तर के दशक में जेपी ने भी बड़ी मेहनत से इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ा था…लेकिन उस वक्त जेपी की समग्र क्रांति में अपने लिए सत्ता का रास्ता तलाशने वाले नेताओं ने क्या किया…दो साल में ही आपस में ऐसी महाभारत रची कि जनता को फिर इंदिरा गांधी में ही मसीहा नज़र आने लगा…यही कहानी अस्सी के दशक के आखिर में फिर देश में दोहराई गई…राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है…का नारा देकर और ईमानदारी का राग अलाप-अलाप कर वी पी सिंह ने राजीव गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया था…वी पी सत्ता में आए तो फिर नतीज़ा ढाक के तीन पात…बोफोर्स को ढाल बनाकर वीपी का सारा राग बस सत्ता को पाने के लिए ही था…लेकिन लालसा दूसरी पार्टियों के नेताओं की भी कम नहीं थी…नतीजा डेढ़ साल में ही वीपी सरकार ने दम तोड़ दिया…
देश के सामने आज फिर विकल्पहीनता की स्थिति है…मनमोहन सरकार के जाने की स्थिति बनती भी है तो उसके बाद कौन…बीजेपी, लेफ्ट या भारतीय राजनीति का चिरकालिक प्रहसन तीसरा मोर्चा…क्या ये सब दूध के धुले हुए हैं…आज कई देशों में जास्मिन क्रांति (ऐसा आंदोलन जिसका कोई राजनीतिक रंग न हो) के चलते दशकों से जमे शासकों को सत्ता छोड़नी पड़ रही है…लेकिन भारत की स्थिति दूसरी है…यहां बदलाव से ज़्यादा इस वक्त ज़रूरी है, ऐसा सिस्टम अमल में लाना जिसके चलते सत्ता में रहने वाले भ्रष्ट हो ही न सकें…फिर कोई भी पार्टी सत्ता में आए, उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा…बस जनता का इस तरह का अंकुश तैयार होना चाहिए कि जहां कोई ज़़रा सा भी हेराफेरी करे तत्काल उसकी पीठ पर ऐसा कोड़ा पड़े कि वो दोबारा उठने की ज़ुर्रत ही न कर सके…आज बदलाव से ज़्यादा देश को कटखन्ने लोकपाल की ज़रूरत है, जो सच में ही जनता के हितों का रखवाला हो…अन्ना के साथ अगर ऐसे वालटिंयर्स हैं तो फिर इस देश की तकदीर को बदलने से कोई नहीं रोक सकता…देश के हर कोने से अन्ना के लिए यही सुनाई देगा….आवाज़ दो, आवाज़ दो, हम एक हैं, हम एक हैं…
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