अनशन गांधी का प्रमुख हथियार था…अन्ना ने भी विरोध का यही रास्ता चुना है….लेकिन इसे इस्तेमाल करने का दोनों का तरीका बिल्कुल जुदा है….गांधी का विरोध करने का मकसद व्यवस्था में सुधार करना और शत्रुओं को भी मित्र बनाना था…लेकिन अन्ना इसे अपने से अलग राय रखने वालों पर निशाना साधने का औजार बना रहे हैं…लोकतंत्र अब भी हमारे देश में बाकी है…ये नहीं भूलना चाहिए कि सरकार कितनी भी निकम्मी क्यों न हो, उसे हमने ही चुनकर भेजा है…ऐसे में सरकार और जनता के बीच इतनी बड़ी खाई आ जाना, कई तरह की समस्याओं को जन्म दे सकता है…सरकार से इतना गुस्सा है, हटा दो इसे…नई सरकार ले आओ…लाओगे कहां से दूध के धुले लोगों की सरकार…उसका तरीका यही है कि चुनाव में अच्छे लोगों को संसद में भेजो…लेकिन इस वक्त जो मध्यम वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग अन्ना अन्ना चिल्ला रहा है, वही उस वक्त घरों से निकल कर मतदान करने की जेहमत उठाना भी पसंद नहीं करता…रातों रात कोई सूरत नहीं बदल सकती…मेरा अब भी यही कहना है कि सरकार का मज़बूत विकल्प तैयार करने के लिए दिन-रात लगो…अराजकता का माहौल तैयार कर किसी का भला नहीं होने वाला…
अन्ना जब तक तिहाड़ में अड़े हैं, बाहर लोगों का हुजूम उमड़ा पड़ा है…इस हुजूम में से ज़्यादातर को लोकपाल और जनलोकपाल का अंतर भी नहीं पता…लेकिन देखादेखी सब एक दूसरे के पीछे हैं…इस हुजूम के वहां जुटने से हुआ क्या…अंदर तेरह हज़ार कैदियों के लिए रोजाना का ज़रूरी सामान दूध, सब्ज़ियां, फल जो ट्रकों के ज़रिए अंदर जाता था, उसे ही भेजने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा…अब भले ही सारे कैदियों को वक्त पर खाना न मिले…
लेकिन जिद तो जिद है…जिद भी किस लिए अनशन को बड़ा मैदान मिले…क़ानून की कोई बंदिश न हो…मीडिया का जमावड़ा हो…लाखों लोग जुटे…उनके साथ ही अनशन किया जाए…ये कैसा अनशन है भाई…अनशन तो घर के कमरे या जंगल से भी किया जा सकता है…16 अगस्त 1947 को गांधी कोलकाता के एक कमरे में अंधेरा कर चुपचाप बैठे थे…आप ये रास्ता क्यों नहीं चुन सकते…आप अनशन के लिए जगह पर ज़ोर क्यों दे रहे हैं…चाहे जंगल से भी अनशन शुरू करे, अगर आपका मकसद सच्चा है तो वही रामलीला मैदान बन जाएगा…
महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी का कहना है कि गांधी होते तो वो हालात को इस स्तर तक पहुंचने ही नहीं देते…भ्रष्टाचार की बीमारी शुरू होते ही उसके खात्मे के लिए सक्रिय हो जाते…न कि इंतज़ार करते कि कैंसर पहले पूरे शरीर को जकड़ ले, फिर इलाज शुरू करेंगे…गांधी को आभास था कि आज़ादी के बाद देश में क्या हो सकता है…इसीलिए उन्होंने आज़ादी मिलते ही कांग्रेस को खत्म करने की सलाह दी थी…
हमारे देश के लोगों में से ज़्यादातर का मन अब भी बहुत साफ़ है…निश्चल है…वो अपने दुख-दर्द दूर होने के लिए हर वक्त किसी मसीहा का इंतज़ार करते रहते हैं…अब ये मसीहा अन्ना में दिख रहा है तो सब उनके पीछे हैं…लेकिन कल उनकी उम्मीदें टूटेंगी तो उन्हें अन्ना में ही खोट नज़र आने लगेगा…हमारी राजनीति की त्रासदी है कि यहां लोगों को अब आइकन नज़र नहीं आते…जिस फील्ड में भी कोई नामी हस्ती ईमानदार नज़र आती है तो वो उसे ही भगवान मान लेते हैं…चाहे वो अमिताभ बच्चन हों या सचिन तेंदुलकर…
याद कीजिए अस्सी के दशक के शुरूआती दिनों को…अमिताभ की छवि उस वक्त स्क्रीन पर सिस्टम से लड़कर दुखियों का दर्द दूर करने की थी…हर आदमी अमिताभ को पर्दे पर देखकर तालियां बजाता था…इन्हीं अमिताभ को कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान हादसे में पेट में खतरनाक चोट लगी और वो मौत के मुंह तक पहुंच गए तो पूरे देश में उनके चंगे होने के लिए दुआएं होने लगीं…अमिताभ ठीक हुए और लगे हाथ 1984 में इलाहाबाद में चुनाव में उतर कर लोकसभा भी पहुंच गए…वो भी हेमवती नंदन बहुगुणा जैसी शख्सीयत को पटखनी देने के बाद….लेकिन उसके बाद क्या हुआ जल्दी ही तिलिस्म टूटा और इलाहाबाद ने अमिताभ से और अमिताभ ने राजनीति से तौबा कर ली…
इसलिए मेरी विनती यही है कि आंदोलन के लिए जुटिए, लेकिन अपने आंख-कान हर वक्त खुले रखिए…ऐसी व्यवस्था के लिए जुटिए जहां हम सबकी भागीदारी होने के साथ हमारी भी ज़िम्मेदारी हो कि हमने गलत व्यक्ति को चुनकर भेजा, जिसकी सज़ा हमें मिलनी ही चाहिए, जब तक कि उस व्यक्ति के हटने लायक हम फिर परिस्थितियां नहीं बना देते…और वो जनप्रतिनिधियों के लिए राइट टू रीकाल कानून से ही मुमकिन हो सकता है…ऐसे क़ानूनों के लिए ज़्यादा ज़ोर लगाइए…हां सिस्टम से खीझे हुए हैं तो एक-दो दिन रामलीला मैदान में जाकर अन्ना-अन्ना कर आइए…आखिर लौटना तो पड़ेगा ही काम पर…घर-बार चलाने के लिए अन्ना तो नहीं आएंगे, वो तो आपको खुद ही चलाना है….
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