Symbiosis of केजरीवाल-कांग्रेस?…खुशदीप

पंडित रविशंकर की जुगलबंदी…

द लाइफ ऑफ पाई…

धर्मेंद्र का डॉन्स सीखना…

तीनों अलग-अलग बातें…लेकिन आज तीनों इकट्ठी याद आ गई…वजह बना
इकोनॉमिक टाइम्स में आशीष शर्मा का एक आर्टिकल…ये आर्टिकल अरविंद केजरीवाल की
दुविधा पर है कि दिल्ली में कांग्रेस का बाहर से समर्थन लेकर सरकार बनाएं या ना
बनाएं…

आशीष ने इस संबंध में प्रख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर का ज़िक्र किया
है…दिवंगत पं. रविशंकर को जीवनपर्यंत ये आलोचना सुनने को मिली कि वो क्यों पश्चिमी
संगीतकारों के साथ जुगलबंदी करते रहे…ये भी कहा गया कि ऐसा करके उन्होंने भारतीय
शास्त्रीय संगीत के साथ समझौता किया…पं. रविशंकर इस आलोचना का ये जवाब देते-देते
थक गए कि उन्होंने जब कभी पश्चिमी संगीतज्ञों के साथ संगत की, अपने संगीत को कभी
नहीं छोड़ा…उलटे पश्चिमी संगीतकारों के लिए उन्होंने खुद ही संगीत तैयार किया…

जो दुविधा पं. रविशंकर को रही, वही क्या आज दिल्ली की सियासी उलझन में
अरविंद केजरीवाल को है….सरकार बनाने के बाद वो बेशक अपना भ्रष्टाचार विरोधी
संगीत बजाना नहीं छोड़ें लेकिन उन्हें ताना हमेशा सुनने को मिलेगा…ताना कि उन्होंने
उस कांग्रेस की बैसाखियों पर सरकार बनाई जिसे वो आम आदमी की परेशानी के लिए
दिन-रात कोसते रहे थे…बेशक
आप की सरकार बनने पर कांग्रेस उन्हें परेशान ना करे,
लेकिन बद से बदनाम बुरा…

चलिए अब बात करते हैं…येन मार्टेल के उपन्यास पर बनी निर्देशक ऑन्ग
ली की फिल्म
द लाइफ़ ऑफ पाई की…इसमें इरफ़ान, आदिल हुसैन, तब्बू और नवोदित
सूरज (सेंट स्टीफंस, दिल्ली का छात्र) ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं…पाई (सूरज)
अपने भाई, मां (तब्बू) और पिता (आदिल हुसैन) के साथ पॉन्डिचेरी में रहता है…ज़ू
चलाने वाला ये परिवार बेहतर ज़िंदगी की तलाश में कनाडा पलायन करने का फैसला करता
है…परिवार पानी के एक जहाज़ पर ज़ू के सारे जानवरों के साथ रवाना होता है…लेकिन
जहाज़ तूफ़ान से पलट जाता है…तूफ़ान गुज़र जाने के बाद एक नाव पर पाई के साथ
बंगाल टाइगर (बाघ) ही जीवित बचता है…पाई खुले बाघ से पहले बहुत डरता है…बाघ भी
उसे नाव पर बर्दाश्त नहीं कर पा रहा होता…लेकिन धीरे-धीरे दोनों जीने की लालसा
में साथ रहना सीख जाते हैं…क्या दिल्ली में भी ऐसा हो सकता है…सवाल मुश्किल
है…



आखिर में किस्सा धर्मेंद्र का…ये उन्होंने खुद एक बार सुनाया था…वो
नए नए ही फिल्मों में आए थे…पंजाब के इस जट्ट को डॉन्स की एबीसी भी नहीं आती
थी…धर्मेंद्र ने अपनी इस कमी को पूरा करने के लिए घर पर डॉन्स की ट्यूशन लेने का
फैसला किया…घर पर डॉन्स मास्टर ने आना शुरू कर दिया…तीन-चार महीने गुज़रने के
बाद धर्मेंद्र पाजी ने तो क्या डॉन्स सीखना था लेकिन उस डॉन्स मास्टर को ज़रूर
दारू की लत लग गई थी…
तीनों किस्से आपने सुन लिए…क्या आपकी दिल्ली से कुछ तार जुड़ रहे हैं…

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