सुनने में आ रहा है कि फॉर्मूला वन रेस के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में जेपी ग्रुप ने सत्रह अरब रुपये खर्च किए हैं…आयोजकों ने इसे देश में खेल को प्रोत्साहन देने के नाम पर टिकटों और इसे जुड़े इवेंट्स पर कर में छूट देने की मांग की थी जिसे दिल्ली की सरकार ने मंज़ूर नहीं किया…
जिस देश में बत्तीस रुपये की कमाई पर गरीबी रेखा की बहस छिड़ी हो वहां ये आर्थिक ताकत का अश्लील प्रदर्शन कितना जायज़ है, मेरी समझ से बाहर है…किसानों की ज़मीन अधिग्रहण कर वहां कार रेसिंग का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना कौनसा अर्जेंट जनोपयोगी काम है, ये भी मेरी समझ से बाहर है…ये ट्रैक अब तक अमेरिका और रूस जैसे देश भी नहीं बना पाए और हमने बना दिया…रेसिंग जैसे महंगे शौक को पूरा करने के लिए देश में कितने लोग समर्थ होंगे, ये भी आसानी से समझा जा सकता है…इस खेल के लिए महंगी कारों की मियाद सिर्फ एक डेढ़ साल की होती है…इसके अलावा इस चोंचले में रबड़ और ईंधन की जितनी बर्बादी होती है, क्या हमारे देश के लिए ये जायज़ है, जहां इन दोनों चीज़ों का ही आयात किया जाता है…
कल अखबार में ये भी पढ़ रहा था कि जो लोग मोटा पैसा खर्च कर रफ्तार और रोमांच के इस खेल को नंगी आंखों से देखने के लिए गए थे, उन्हें वहां खाने-पीने के छोटे सामान के लिए भी कितनी बड़ी रकम ढीली करनी पड़ी…आप खुद ही मुलाहिजा फरमाइए…
दो समोसे….100 रुपये
चाय……..50 रुपये
एक गुलाब जामुन…50 रुपये
राजमा चावल…250 रुपये
वेजी बर्गर…200 रुपये
चिकन बर्गर…250 रुपये
पेटीज…100 रुपये
पानी की बोतल…100 रुपये
अब मरते क्या न करते…ऐसी जगहो पर आपको साथ कुछ भी ले जाने की इजाज़त नहीं होती…इसलिए भूख प्यास लगने पर आपको मुंहमांगी कीमत पर कुछ खरीदना ही पड़ेगा…जिन्होंने ये सब चीज़ें लेकर खाईं, उन्होंने इनके बेस्वाद होने की भी शिकायत की…इस पर जो सामान बेच रहे थे, उनका कहना था कि हमनें ये चीज़ें बाहर के लोगों के स्वाद के अनुरूप कम मिर्च मसाले की बनाई है, इसलिए लोग ऐसा कह रहे हैं…
अब बताइए कि क्या मुझे ये रेस देखने जाना चाहिए था…
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