कल मैंने काफ़ी के कप पेश किए थे…पता नहीं किसी सज्जन को काफ़ी का टेस्ट इतना कड़वा लगा कि उन्हें बदहजमी हो गई…शायद उस सज्जन ने ठान लिया था कि मुझे कॉफी पिलाने का मज़ा चखाना ही चखाना है…वो सज्जन मेरी टांग से ऐसे लिपटे, ऐसे लिपटे कि मुझे गिरा कर ही माने…अवधिया जी ने कल अपनी पोस्ट में लिखा था बंदर के हाथ में उस्तरा…और ये उस्तरा और किसी ने नहीं ब्लॉगवाणी ने ही अनजाने में नापसंदगी के चटके की शक्ल में मुहैया कराया है…
अब या तो वाकई ये कोई ब्लॉगवुड की भटकी हुई आत्मा है जो हॉट लिस्ट पर घूम-घूम कर नापसंदगी का प्रसाद बांटती रहती है या फिर ये कोई भेड़ की शक्ल में छिपा भेड़िया है…आज ये मैं पोस्ट उसी भटकती आत्मा या भेड़िए को समर्पित कर रहा हूं…जितने चाहे नापसंदगी के चटके लगाना चाहता है, लगा ले…मैं साथ ही इस शख्स की तहे दिल से तारीफ़ भी कर रहा हूं…क्योंकि ये शख्स पूरी शिद्दत के साथ अपने धर्म का पालन कर रहा है…जिस तरह संत का धर्म होता है दूसरों का भला सोचना, उसी तरह सांप का धर्म होता है डसना…अगर वो डसे नहीं तो इसका मतलब है कि वो अपने धर्म से विमुख हो रहा है…आज ये पोस्ट धर्म का पालन करने का पूरा मौका दे रही है…किसे ?…कहने की ज़रूरत है क्या ?
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