क्या कसूर सिर्फ बेटे-बहुओं का ही होता है…माता-पिता या बुज़ुर्ग क्या कभी गलत नहीं होते…युवा पीढ़ी के इस सवाल में भी दम है…हम सिर्फ एक नज़रिए से ही देखेंगे तो न्याय नहीं होगा…रिश्तों की मर्यादा बेहद महीने धागे की तरह होती है…एक बार टूट जाए तो बड़ा मुश्किल होता है उसका दोबारा जुड़ना…जुड़ भी जाए तो गांठ पड़ ही जाती है…इस लेखमाला को विराम देने के लिए मैं सितंबर में लिखी एक पोस्ट के कुछ अंशों को दोबारा उद्धृत कर रहा हूं…
कहते हैं न…क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात…बच्चे गलतियां करते हैं, बड़ों का बड़प्पन इसी में है कि उन्हें क्षमा करें…बुज़ुर्ग अगर मन में बात रखेंगे तो उससे दिक्कतें बढ़ेंगी ही कम नहीं होंगी…बुज़ुर्ग भी नए ज़माने की दिक्कतों को समझें…जिस तरह के प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में आज जीना पड़ रहा है, पहले ऐसा नहीं था…ज़ाहिर है नौकरियों में पैसा बढ़ा है तो तनाव भी उतना ही बढ़ा है…अब पहले वाला ज़माना नहीं रहा कि दस से पांच की ड्यूटी बजा दी और काम खत्म…आज चौबीसों घंटे आपको अपने काम के बारे में सोचना पड़ता है…अन्यथा करियर में पिछड़ जाने की तलवार हमेशा सिर पर लटकी रहेगी…फिर बच्चों के लिए भी अब कॉम्पिटिशन बहुत मुश्किल हो गया है…इसलिए बीच की पीढ़ी को बच्चों को भी काफी वक्त देना पड़ता है…ठीक वैसे ही जैसे कि आप अपने वक्त में देते थे…
बुज़ुर्ग अपने लिए हर वक्त मान-सम्मान की उम्मीद करते हैं तो वो दूसरों (चाहे वो कितने भी छोटे क्यों न हो) की भावनाओं का भी ध्यान रखे…बुज़ुर्ग अगर हमेशा ही…हमारे ज़माने में ऐसा होता था, वैसा होता था…करते रहेंगे तो इससे कोई भला नहीं होगा…मैंने देखा है बुज़ुर्ग सास-ससुर का बहू-बेटे के लिए सोचने का कुछ नज़रिया होता है…और बेटी-दामाद के लिए कुछ और…आपको ये समझना चाहिए कि अब बहू ही बेटी है…बिना बात हर वक्त टोका-टाकी न करे…अब दुनिया ऐसी होती जा रही है जहां चौबीसों घंटे काम होता है…जीने के अंदाज़ बदल गए हैं…इसलिए समय पर घर आओ, समय से घर से जाओ, जैसे नियम-कायदे अब हर वक्त नहीं चल सकते…दिन भर काम में खपने के बाद पति-पत्नी को प्राइवेसी के कुछ पल भी चाहिए होते हैं…इसलिए उन्हें ये लिबर्टी देनी ही चाहिए…सौ बातों की एक बात…बुज़ुर्ग हो या युवा, एडजेस्टमेंट बिठाने की कला सभी को आनी चाहिए…
युवा पीढ़ी को भी समझना चाहिए कि बच्चा और बूढ़ा एक समान होते हैं…जैसे आप बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं, ऐसे ही उनकी भावनाओं का भी ध्यान रखें जिन्होंने आपको हर मुश्किल सहते हुए अपने पैरों पर खड़ा किया…हर रिश्ते का मान कैसे रखना चाहिए, इसके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है…
राम ने हर रिश्ते की मर्यादा को जान से भी ज़्यादा अहमियत दी…राम का यही पक्ष इतना मज़बूत है कि उन्हें पुरुष से उठा कर भगवान बना देता है…कहने वाले कह सकते हैं कि एक धोबी के कहने पर राम ने सीता के साथ अन्याय किया…लेकिन जो ऐसा कहते हैं वो राम के व्यक्तित्व की विराटता को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझते…राम ने सीता को कभी अपने अस्तित्व से अलग नहीं समझा…राम खुद हर दुख, हर कष्ट सह सकते थे लेकिन मर्यादा के पालन की राह में कोई आंच नहीं आते देख सकते थे…इसलिए सीता ने जब दुख सहा तो उससे कहीं ज़्यादा टीस राम ने सही…क्योंकि राम और सीता के शरीर भले दो थे लेकिन आत्मा एक ही थे…बस राम के इसी आदर्श को पकड़ कर हम चाहें तो अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं…अन्यथा घर को नरक बनाने के लिए हमारे अंदर रावण तो है ही…
विवेक राम के रूप में हमसे मर्यादा का पालन कराता है…लेकिन कभी-कभी हमारे अंदर का रावण विवेक को हर कर हमसे अमर्यादित आचरण करा देता है…अपने बड़े-बूढ़ों को ही हम कटु वचन सुना डालते हैं…अपने अंदर के राम को हम जगाए रखें तो ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है…यहां ये राम-कथा सुनाने का तात्पर्य यही है कि बड़ों के आगे झुक जाने से हम छोटे नहीं हो जाते…यकीन मानिए हम तरक्की करते हैं तो हमसे भी ज़्यादा खुशी हमारे बुज़ुर्गों को होती है…जैसा हम आज बोएंगे, वैसा ही कल हमें सूद समेत हमारे बच्चे लौटाने वाले हैं…इसलिए हमें अपने आने वाले कल को सुधारना है तो आज थोड़ा बहुत कष्ट भी सहना पड़े तो खुशी-खुशी सह लेना चाहिए…
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