ब्लॉगिंग हमें ड्राइव कर रही हैं या हम ब्लॉगिंग को ड्राइव कर रहे हैं…ब्ल़ॉगिंग ही क्यों, क्या कभी हमने सोचा है इंटरनेट ने हमें कैसे अपने जाल में जकड़ लिया है…इस मुद्दे पर बीबीसी के राजेश प्रियदर्शी ने अपने ब्लॉग में बड़ी अच्छी बहस छेड़ी कि वर्चुअल वर्ल्ड में हम रियली अकेले होते जा रहे हैं…राजेश प्रियदर्शी के मुताबिक सिर्फ़ रात को सोने के बाद और सुबह उठने से पहले इंटरनेट की ज़रूरत नहीं रहती. दिन भर दफ़्तर में, सुबह-शाम घर में, और रास्ते में मोबाइल फ़ोन पर…इंटरनेट जब से ख़ुद तारों के बंधन से मुक्त हुआ है तबसे उसने हमें और कसकर जकड़ लिया है.
इसी बहस को मैनें आगे बढ़ाते हुए राजेशजी को भेजी अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि ये वर्चुअल वर्ल्ड इंसान का ही बनाया हुआ है. वर्चुअल वर्ल्ड ने इंसान को नहीं बनाया है. ये ठीक है कि इंटरनेट ने आज दुनिया को एक गांव बना दिया है. पलक झपकते ही दुनिया के किसी कोने में भी आप संपर्क कर सकते हैं. ब्लॉगर और न्यूज़ चैनल प्रोड्यूसर होने के नाते मेरे लिए बिना इंटरनेट सब सून वाली स्थिति है. लेकिन कभी-कभी लगता है कि इंटरनेट के अत्यधिक प्रयोग की वजह से मैं सोशल सर्किल से कटता जा रहा हूँ. इसके लिए मुझे लताजी का एक पुराना गीत भी याद आ रहा है- किसी के तुम इतने क़रीब हो कि सबसे दूर हो गए…वैसे कभी-कभी मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, इन सब की क़ैद से दूर ऋषिकेश में गंगा किनारे पानी में पांव डालकर बैठना देवलोक जैसा आनंद देता है…यकीन नहीं आए तो कभी ट्राई करके देखिए.
राजेश प्रियदर्शी के मुताबिक लंदन के अख़बारों में ख़बर छपी है कि पति ने पत्नी को मार डाला क्योंकि वह फेसबुक जैसी वेबसाइटों पर बहुत ज्यादा समय बिताती थी.शायद असली वजह कुछ और रही होगी. अगर कंप्यूटर पर अधिक समय बिताना क़त्ल किए जाने की असली वजह होता तो हमारे जैसे कितने ही लोग अपनी जान गँवा चुके होते.
ये बात सच है कि कभी-कभी ब्लॉगिंग में हम इतना रम जाते हैं कि घर में क्या हो रहा है, वो भी हमें पता नहीं चलता…दुनिया जहां का हाल पूछते-पूछते हमें यही ख्याल नहीं रह पाता कि पत्नीश्री ने बाज़ार से कुछ ज़रूरी सामान लाने के लिए फरमा रखा है…बच्चों के स्कूल में पेरेट-टीचर मीटिंग में हिस्सा लेने भी जाना है…
राजेश प्रियदर्शी ये भी कहते हैं कि रियल वर्ल्ड और वर्चुअल वर्ल्ड में संतुलन बनाने की ज़रूरत है. कई बार तो लगता है कि इंटरनेट कनेक्शन ड्रॉप होना और बिजली का जाना उतनी बुरी चीज़ नहीं है जितनी लगती है…अकेलेपन के मर्ज़ की दवा हम इंटरनेट से माँग रहे हैं, यह अपनी ही परछाईं को पकड़ने की नाकाम सी कोशिश नहीं लगती? अपने कमरे में बैठकर आप पूरी दुनिया से जुड़ जाते हैं और अपने ही घर से कट जाते हैं.
इसी मुदुदे पर होशियारपुर, पंजाब के बलवंत सिंह जी ने अपनी राय में कहा कि यह कहना ग़लत न होगा कि वर्चुअल वर्ल्ड के नशे के आगे सोमरस का नशा भी फींका सा लगता है. ज़िंदगी के हर रंग का अहसास और आनंद लेना चाहिए, लेकिन इतना भी किसी रंग में डूबने का क्या फ़ायदा कि ख़ुद की पहचान ही ख़त्म हो जाए. आज विज्ञान, तकनीक की हर जगह ज़रूरत है. सोशल नेटवर्किंग, फ़ेसबुक, इंटरनेट चैटिंग में कोई बुराई नहीं बशर्ते ये हमारे कंधों पर सवार न हो जाए ताकि सीधे खड़े ही न हो पाएँ. दीन-दुनिया से कटे सो अलग. अति तो फिर अति ही होती है. यह सब जानते हैं कि इसके जनक देश अपने नागरिकों को इस रोग से छुटकारा पाने के हेतु मनोरोग विशेषज्ञों का सहारा लेने की सलाह दे रहे हैं. इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता स्वयं ही खोजना होगा.
इस मुद्दे पर ब्लॉगर्स बिरादरी क्या राय रखती है, मुझे ज़रूर अवगत कराए…फिलहाल आज स्ल़ॉग ओवर में मक्खन जी के ब्रेक पर होने की वजह से कहानी खरगोश और कछुए की…
स्लॉग ओवर
खरगोश के बारहवीं में 85 % और कछुए के 70 % नंबर आए. लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी में कॉलेज में खरगोश को नहीं कछुए को एडमिशन मिला…
पूछो क्यों…
अरे भई स्पोटर्स कोटा भी कोई चीज होती है न… भूल गए बचपन मे कछुए ने खरगोश से रेस जीती थी…
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