बैंगलुरू देश का ‘सुसाइड कैपिटल’…खुशदीप

आईटी सिटी बैंगलुरू…नई नवेली नम्मा मेट्रो का शहर बैंगलुरू…और अब देश की सुसाइड कैपिटल के तौर पर पहचान बनाता बैंगलुरू…बात हैरान करने वाली है लेकिन है सच…शुक्रवार को ही शहर के चामराजपेट इलाके के वाल्मिकिनगर में रहने वाले डॉक्टर अमानुल्ला (60) ने दो जवान बेटों (नवाज़ 28, निज़ाम 26) और पत्नी नवीदा बानो (50) के साथ ड्रग्स के इंजेक्शन लेकर खुदकुशी कर ली…बड़ा बेटा नवाज भी डॉक्टर था और छोटा बेटा निज़ाम कोलार के देवराज अर्स मेडिकल कालेज से एमबीबीएस कर रहा था…करीबियों के मुताबिक ये परिवार मोटे कर्ज़ से परेशान था…

खुदा केयर नर्सिंग होम के ज़रिए मरीज़ों को ज़िंदगी के नए मायने देने वाला ये परिवार खुद ही ज़िंदगी की जंग हार गया…बताया यही जा रहा है कि डॉ अमानुल्ला ने नर्सिंग होम और दोनों बेटों को पढ़ाने के लिए बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों से लाखों का कर्ज लिया हुआ था…उसी को न चुका पाने की वजह से अवसाद ने उन्हें जकड़ लिया था…पुलिस कर्ज़ के एंगल के साथ दूसरे पहलुओं पर भी तफ्तीश कर रही है कि परिवार किसी और दबाव से तो परेशान नहीं था…मौके से कोई सुसाइड नोट न मिलने की वजह से पुलिस का काम और मुश्किल हो गया है….

खैर ये तो रही सिर्फ इस परिवार की खुदकुशी की बात…नवंबर के आखिरी हफ्ते में ही बैंगलुरू में 30 लोगों ने अलग-अलग वजहों से खुद ही मौत को गले लगाया…नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ें बताते हैं कि इस साल जनवरी से अक्टूबर तक बैंगलुरू में 1407 लोगों ने खुदकुशी की…इनमें 535 महिलाएं और 872 पुरुष थे…बैंगलुरू में हर साल ये आंकड़ा तकरीबन पांच फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है…देश के सारे महानगरों में सबसे ज़्यादा खुदकुशी बैंगलुरू में ही होती हैं…

अगर देश की बात की जाए तो हर साल एक लाख से ज़्यादा लोग यहां खुदकुशी करते हैं…इनमें से 43 फीसदी खुदकुशी देश के महानगरों में ही होती हैं…अगर क्षेत्रीय हिसाब से बात की जाए तो दक्षिणी राज्यों में ही आत्महत्याओं के सबसे ज़्यादा मामले सामने आते हैं…खुदकुशी के लिए सबसे बड़ी वजह पारिवारिक झगड़े हैं…

आंकड़े इसलिए भी चौंकाने वाले हैं क्योंकि ये माल कल्चर से चमकते-दमकते महानगरीय जीवन से जुड़े हैं…यहां विदर्भ में खुदकुशी करने वाले किसानों की बात नहीं हो रही…उन किसानों के लिए तो यही सबसे बड़ी कशमकश होती है कि किस तरह ज़िंदगी को बचाने लायक दो जून की रोटी का इंतज़ाम होता रहे…लेकिन महानगरों में मुफलिसी की वजह से मरने वाले तो इक्का-दुक्का ही होते होंगे…फिर क्या वजह है, इस तरह ज़िंदगी से हारने की…क्यों लोग छोटी-छोटी खुशियों को जीने की जगह इतनी बड़ी हसरतें पाल लेते हैं कि ज़िंदगी ही दांव पर लग जाए…ज़रूरी काम के लिए कर्ज़ वहीं तक लेना सही है, जहां तक आप उसे चुकाने की कुव्वत रखते हों…ऐशो-आराम और दूसरों की देखा-देखी अपना ऊंचा स्टेटस दिखाने के लिए कर्ज़ के आसरे विलासिता की चीज़ें इकट्ठा करना पैरों पर कु्ल्हाड़ी मारने जैसा ही है…बच्चे पढ़ाई में फिसड्डी हैं तो भी उन्हें मोटी कैपिटेशन फीस देकर डॉक्टर-इंजीनियर-एमबीए बनाने की सनक एक तरह से खुद को धोखा देना ही है…योग्यता न होने के बावजूद कई साल लगाकर ऐसे बच्चे प्रोफेशनल बन भी गए तो किसका भला होने वाला है…

मल्टीटास्किंग के इस युग में महानगरों में हर कोई दौड़ रहा है…काहे के लिए भइया इतनी मारामारी…ज़िंदगी है तो सब है…जो मिल रहा है, उसी से संतोष क्यों नहीं…क्यों उधार की ज़िंदगी में ही हम खुशियां ढ़ूंढना चाहते हैं…अपने आस पास एक बार नज़र डाल कर तो देखिए…बच्चों की खिलखिलाहट पर….सब कुछ भूलकर उनके साथ बच्चा बनिए…पास के पार्क में जाकर कांटों के बीच भी फूलों से खिलना सीखते हुए घास पर नंगे पैर चलकर देखिए…टेंशन को दिमाग में स्टोर करने की जगह हवा में उड़ाइए…दौड़ने के साथ फुर्सत की दो घड़ी निकाल कर  दम लेना भी सीखिए…सचिन दा के इस गीत की तरह….

……………………………………………………………………………………………………………………………