इक दिन चलणा…

जिंद मेरिए मिट्टी दी ए ढेरिए, इक दिन चलणा…(जीवन माटी की एक ढेरी है, एक दिन चलना है)….ये शबद मेरे कानों में गूंज रहा है…साथ ही ये सवाल मेरे ज़ेहन में, कि हम है क्या…हमारा दुनिया में आने का मकसद क्या..
सब कुछ अपनी रफ्तार से चल रहा था…बुधवार की सुबह मुझे फोन पर ख़बर मिली कि लखनऊ में कोई अपना बेहद करीबी हमेशा के लिए चला गया…थोड़ी देर के लिए जहां था, वहीं जड़ हो गया…दिमाग ने जैसे शरीर का साथ देना छोड़ दिया…थोड़ा संभला..अब बस एक ही सोच…कैसे आंख बंद करूं और लखनऊ अपनों के बीच पहुंच जाऊं..उन अपनों के बीच जिनमें से एक अपने को अब रब ने अपना बना लिया…लेकिन इंसान के सोचने से ही सब कुछ नहीं हो जाता…शाम से पहले किसी ट्रेन में “तत्काल” से भी रिज़़र्वेशन नहीं था…बड़ी मशक्कत के बाद रात की ट्रेन मिली…बृहस्पंतिवार पौ फटते ही लखनऊ पहुंच गया…अब ये अंतर्द्वंद कि अपनों का सामना कैसे कर पाऊंगा…लेकिन सामना हुआ…कुछ बोले बिना ही सब कुछ कहा गया…मौन भी कितना बोल सकता है…शायद पहली बार इतनी शिद्दत के साथ महसूस कर रहा था…
दोपहर को वो घ़ड़ी भी आ गई जब वो अपना भी देखने को मिल गया जो अब दूसरी दुनिया का अपना हो गया था…शांत…एक लाल गठरी में…फूलों के बीच अस्थियों की शक्ल में...फूल प्रवाह करने की रस्म पूरी करनी थी…लखनऊ में तो गोमती ही मोक्षदायिनी है…दो गाड़ियों में मेरे समेत कुछ अपने, जुदा हुए एक अपने को, हमेशा हमेशा के विदाई देने गोमती के तट पर पहुंच गए…वहां जाकर देखा…कुछ चिताएं जलती हुईं…कुछ जलने के लिए तैयार…इसी माहौल के बीच सीढ़ियों से गोमती के पानी तक उतरे…किनारों पर काई इतनी कि पानी और ज़मीन का भेद मिटाती हुई…ऐसे छिछले पानी में कैसे उस अपने को मोक्ष मिलेगा…पानी के नज़दीक सबसे आखिरी सीढ़ी पर खड़ा मैं यही सोच रहा था…

क्या सोच रहे बाबू…अस्थियां बहानी है का…अचानक इस सवाल ने मेरी तंद्रा तोड़ी…सामने एक अधेड़ और एक युवक मैले-कुचैले कुर्ता-पाजामा पहने खड़े थे…चार कदम के फासले पर 7-8 बच्चे भी एकटक हमारी ओर देखे जा रहे थे…हमारे में से किसी ने पूछा…भईया ये अस्थियां क्या यहीं प्रवाह की जाती है…यहां तो साफ पानी है नहीं…अस्थियां आगे बहेंगी कैसे…
अधेड़ से जवाब मिला…हमारे होत आप चिंता काहे करत…रे गणेसी…उतर तो ज़रा पानी में…ये सुनते ही गणेसी काई पर ऐसे चलने लगा जैसे तेज़ चाल कंपीटिशन में हिस्सा ले रहा हो…गणेशी वहीं से लाल गठरी को गोमती में डालने के लिेए ऐसी मुद्रा में आ गया जैसे मछुआरा नदी में मछलियों को फांसने के लिए जाल फेंकते वक्त आता है…हमारे बीच से फिर किसी ने टोका…लाल गठरी खोल कर फूल और अस्थियां प्रवाहित करो…अब गणेसी ने ऐसा ही किया…तब तक हमारे साथ गईं एक बुज़ुर्ग महिला ने 21 रुपये मुझे पकड़ाए…क्योंकि मैं ही आखिरी सीढ़ी पर खड़ा था…मैंने वो 21 रुपये गणेसी के अधेड़ साथी को पकड़ाने चाहे…उसने 21 रुपये देखते ही मुझे ऐसे घूरा कि मैंने हत्या जैसा कोई अपराध कर दिया हो…21 रुपये मेरे हाथ में ही रह गए…तब तक मेरे साथ खड़े सज्जन माजरा समझ गए ….उन्होंने कहा कि ले लो, अभी दक्षिणा अलग से मिलेगी…ये सुनते ही अधेड़ और गणेसी के चेहरे ऐसे खिल गए जैसे काई में कमल…मनमुताबिक दक्षिणा मिलते ही अधेड़ और गणेसी दिवंगत की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने लगे…तब तक अस्थियां आधी बह गईं थीं और आधी अब भी वहीं टिकी हुई थीं जहां गणेसी ने उन्हें डाला था…थके कदमों से हम सब मुड़े तो वहां खड़े सातों-आठों बच्चे भी हमारे पीछे हो लिए…उन बच्चों ने नोटों की वो गड्डी अच्छी तरह देखी थी जिसमें निकाल कर कुछ नोट दक्षिणा के तौर पर अधेड़ और गणेसी को दिेए गए थे…
बच्चों को पीछा करते हमारे बीच से ही एक कड़कदार आवाज़ गूंजी…शर्म नहीं आती ये काम करते…इस उम्र में ही ये सब सीख लिया…ज़िंदगी भर कुछ काम नहीं कर सकोगे…ये सुनकर बच्चों के कदम ठिठक गए…
अब घर आ चुके हैं…शब्द चल रहा है…जिंद मेरिये, मिट्टी दी ए ढेरिए…इक दिन चलणा…मैं सिर झुकाए बैठा हूं…यही सोचता…इक दिन सभी को चलना है, तो फिर जीते-जी ये आपाधापी क्यों…क्या हमारी इस अंधी दौड़ की भी आखिरी मंज़िल वही नहीं, जहां इक दिन सभी को पहुंचना है….

(अभी नियमित पोस्ट लिखने की मानसिक स्थिति में आने में मुझे तीन-चार दिन लगेंगे…आशा है आप सभी मेरी व्यथा को समझेंगे)

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