इतिहास खुद को दोहराता है…पहले दिलीप कुमार और अब शाहरूख़ ख़ान…आता हूं इस बात पर लेकिन पहले एक और आइना देख लिया जाए…
वाकई हमने साबित कर दिया है कि हमसे ज़्यादा दुनिया में कोई और वेल्ला नहीं है… सरहद पार के रहमान मलिक जैसे जोकर और हाफ़िज सईद जैसे खुराफ़ाती दो जुमले क्या बोल देते हैं, कि हम सब धूल में लठ्ठ चलाने लगते हैं…अपने ही घर के, जी हां अपने ही घर के शाहरुख़ ख़ान पर इतना दबाव बना देते हैं कि उसे अपनी सफ़ाई में प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ती है…वही शाहरुख़ ख़ान जिसने अपने दम पर बॉलीवुड में मकाम बनाया है…पहली बात तो शाहरुख़ के जिस कथित बयान को लेकर इतनी हायतौबा हुई, उसे किसी ने ठीक से समझने की कोशिश नहीं की…बस आतंकी सरगना हाफ़िज सईद के शाहरुख़ को भारत छोड़कर पाकिस्तान आऩे के न्यौते को पकड़ लिया…पाकिस्तान के आंतरिक मामलों के मंत्री रहमान मलिक ने भारत सरकार को शाहरुख़ की सुरक्षा मज़बूत करने की ‘बिन मांगी सलाह’ देकर और पेट्रोल छिड़क दिया…बस फिर क्या था, देश के सभी ज़रूरी मुद्दों को भूल कर हम लग गये इस गैर ज़रूरी मूर्खता पर ज्ञान झाड़ने…
शाहरुख़ ने भी अपने बयान को लेकर विवाद को ‘बकवास’ बताया है…साथ ही कहा है कि उनके लिखे आर्टिकल ‘बिइंग ए ख़ान’ को गलत ढंग से पेश किया गया है…शाहरुख़ ने कहा क्या, पहले उसे पढ़ लिया जाए…
“मैं उन सभी को बताना चाहता हूं, जो मुझे बिना मांगे सलाह दे रहे हैं, कि हम भारत में पूरी तरह सुरक्षित हैं और खुश हैं…हमारी ज़िंदगी का लोकतांत्रिक, मुक्त और धर्मनिरपेक्ष तरीका अद्भुत है…मैं सभी से कहना चाहूंगा कि पहले उस आर्टिकल को पढ़ें…मैं तो इस विवाद का आधार ही नहीं समझ सकता..विडंबना है कि, जो आर्टिकल मैंने लिखा है, जी हां मैंने लिखा है, उसमें मैं इसी बात को दोहराना चाहता था कि हठी और संकीर्ण मानसिकता के लोग कुछ मौकों पर मेरे भारतीय मुस्लिम फिल्म स्टार होने का दुरुपयोग करते हैं, जो कि धार्मिक विचारधाराओं को अपने बहुत छोटे-छोटे हितों के लिए गलत ढंग से भुनाने की कोशिश करते हैं…
आउटलुक टर्निंग पाइन्ट में शाहरुख़ ने अपने आर्टिकल में लिखा है...”मैं कभी-कभी ऐसे राजनीतिक नेताओं का बेख़बर लक्ष्य बन जाता हूं…जो मुझे उस सभी का प्रतीक चुन लेते हैं जैसा कि वो भारत में मुस्लिमों के बारे में गलत और (अ)देशप्रेमी होने की धारणा रखते हैं..कुछ ऐसे मौके भी आए, जब मुझे अपने देश की जगह पड़ोसी देश से ज़्यादा निष्ठा रखने का आरोपी ठहराया गया…ये इसके बावजूद किया गया कि मैं भारतीय हूं, जिसके पिता ने देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी थी…ऐसी रैली की गईं जिसमें मुझे नेताओं ने देश छोड़ने और उस जगह लौटने के लिए कहा जिसे वो मेरी मूल मातृभूमि बताते हैं”…
शाहरुख़ ने आर्टिकल में जो भी लिखा, वो उन्होंने शायद शिवसेना-एमएनएस से पूर्व में हुए कटु अनुभव के आधार पर लिखा…याद कीजिए शाहरुख़ का 2010 में आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेटरों को लेकर दिया बयान…उस वक्त आईपीएल के दौरान बोली से पाकिस्तानी क्रिकेटरों को अलग कर दिया गया था…शाहरूख ने उस वक्त कहा था कि आईपीएल में पाकिस्तान के क्रिकेटरों को खिलाया जाना चाहिए था…लेकिन शाहरुख़ के इस बयान के बाद शिवसेना का पारा चढ़ गया था…यहां तक कि पार्टी नेताओं ने शाहरूख़ से पाकिस्तान जाकर बस जाने की ही बात कह डाली थी…उनके घर के बाहर प्रदर्शन हुए….शिवसैनिकों ने इसी बयान को लेकर महाराष्ट्र में शाहरुख़ की फिल्म माई नेम इज़ ख़ान का विरोध भी किया था…लेकिन उस वक्त भी शाहरुख़ ने कहा था कि उन्होंने गलत कुछ नहीं कहा था और वो इसके लिए किसी से माफ़ी नहीं मांगेंगे…
अब याद कीजिए आईपीएल मैच के दौरान वो घटना जिसमें बच्चों को वानखेडे स्टेडियम में जाने से रोकने पर शाहरुख़ आपा खो बैठे थे और एक गार्ड से दुर्व्यवहार कर बैठे थे…उस मामले में राज ठाकरे की एमएनएस ने मराठी अस्मिता का छौंक लगाते हुए कहा था कि जो गार्ड शाहरुख को रोक रहा था वह मराठी में अपनी बात कह रहा था और शाहरुख मराठी नहीं जानने की वजह से उसकी बात समझ नहीं पाये…एमएनएस ने उन्हें मराठी सीखने की सलाह भी दे डाली थी…ज़ाहिर है ये सभी बातें शाहरुख़ के ज़ेहन में थी, जिन्हें आउटलुक टर्निंग पाइंट के आर्टिकल में अभिव्यक्ति मिल गई…
ख़ैर शाहरुख़ तो शाहरुख़, अभिनय सम्राट दिलीप कुमार को भी 17 साल पहले ऐसे ही दौर से गुज़रना पड़ा था… पाकिस्तान ने उन्हें 1996 में अपने सर्वोच्च नागरिक अलंकरण निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा था…लेकिन उसकी गूंज तीन साल बाद भारत में सुनी गई..1999 में कारगिल में पाकिस्तान के दुस्साहस के बाद दोनों देशों में तनाव चरम पर था…तब शिवसेना ने दिलीप कुमार पर ये सम्मान पाकिस्तान को लौटाने के लिए जबरदस्त दबाव बनाते हुए विरोध प्रदर्शन किए थे…1999 में दिलीप कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात के बाद निशान-ए-इम्तियाज़ को पाकिस्तान को ना लौटाने का फ़ैसला किया था…उस वक्त वाजपेयी ने भी कहा था कि दिलीप कुमार की देशभक्ति और धर्मनिरपेक्षता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता…और सम्मान को रखना या ना रखना ये उनका व्यक्तिगत मामला है और ये उन पर ही छोड़ देना चाहिए.
तो क्या इतिहास ने फिर खुद को दोहराया है…शाहरुख़ ख़ान को भी दिलीप कुमार की तरह लोकप्रियता की कीमत चुकानी पड़ रही है…यहां ये भी सोचना चाहिए कि क्यों कला, संगीत, खेल जैसे क्षेत्रों और इससे जुड़ी हस्तियों को भी हम खास विचारधाराओं का बंधक बना कर रखना चाहते हैं…क्यों हाफ़िज सईद जैसे सिरफिरे के दो लफ्ज़ ही हमारे लिए इतने अहम हो जाते हैं कि हम अपने ही घर के शाहरुख़ को सवालों के कटघरे में खड़ा कर देते हैं…
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