पॉपुलर लेखन गुनाह है क्या…खुशदीप

गंभीर लेखन बनाम पॉपुलर लेखन को मुद्दा बनाते हुए मैंने कल पोस्ट लिखी थी…टीआरपी कैसे बढ़ाई जाए…इस पर सागर ने मुझे टिप्पणी भेजी… इससे पहले भी मुझे सागर ने टिप्पणी भेजी थी कि मैंने बहुत दिनों बाद अपने ब्लॉग के नाम के अनुरूप कोई पोस्ट लिखी थी…(सबसे पहले देश)…अन्यथा मेरी दूसरी पोस्टों के लिए तो ब्लॉगनामा नाम ज्यादा सटीक बैठ रहा था…
 
सागर ने जो नई टिप्पणी भेजी… पहले वो अक्षरक्ष…

अब जब आपको मेरा कल का कहा सत्य लगा तो दो कदम आगे आ कर और कहता हूँ… यह तल्खी से कहना की “यहाँ सब ज्ञानी हैं ” उचित नहीं हैं… मेरे जैसे कुछ लोग अज्ञानी है यह सत्य है… पर सभी अज्ञानी नहीं हैं यह भी उतना ही सत्य है… बात उठती है की आपका ज्ञान और अज्ञान नापने का स्केल क्या है ? अगर मैं अपनी बात करूँ तो मुझे साहित्यिक भूख है, समाचारों की भूख है… विवेचना की भूख है, कुछ सीखने की भूख है…ऐसे में मैं वोही तलाशूंगा… जो जैसे पसंद रखता है वहां खोज कर पहुँच ही जाता है… साथ ही यह भी गलत मानता हूँ की अच्छे लेख पढ़े नहीं जाते, जाते हैं… निर्भर करता है की वहां कितने उस टाइप की लोग पहुंचे हैं… यहाँ फिर स्केल काम करता है… कुछ ब्लॉग मैं आपको बताता हूं…अजदक– प्रमोद सिंह, सबद- अनुराग वत्स, मल्तीदा और …- शायदा, फुरसतिया – अनूप शुक्ल (शुक्र है इनकी लेखनी बोलचाल की है )…और भी कई जो मैं नहीं जानता लेकिन बात जब रातों रात लेखक और कवि बानने की आती है को ब्लोग्गेर्स को धैर्य रखना ही होगा… पढने वाले और पसंद करने वाले दोनों वहां पहुंचेंगे ऐसे लोगों को कभी विज्ञापन नहीं करना पड़ता… इन्हें अपनी योग्यता पर भरोसा होता है… या फिर यह इसके बारे में भी नहीं सोचते… टारगेट साफ़ है आपको लिखना है या कमेन्ट पाना है… कमेन्ट से लेख का स्तर नहीं होता… मन की बात कहने से होता है… ऐसे कई स्तरहीन ब्लॉग में जानता हूँ (इनमें हो सकता है मेरा भी शामिल हो ) जो आलतू- फालतू और घटिया लेख लिखते है जो कहीं न कहीं पढ़े होते हैं… फिर भी वो अच्छे कहलाना चाहते हैं….मैंने पहले भी कहा था हिंदी वाले आकादमी हो या पत्रिका, या फिर ब्लॉग….हमेशा लड़ते और खुद को दिल ही दिल में बेहतर समझते हैं… ऊपर से विनम्रता का लेबल चस्पा देते हैं… (यह सबकी बात नहीं है)…असल मुद्दा आनंदित करने का है, विवेकपूर्ण होकर ब्लॉग जगत को कुछ देने का है… टुच्चे विज्ञापन से कुछ नहीं मिलेगा…

सागर को अब मैं एक-एक करके जवाब देने की कोशिश करूंगा..अगर आपको साहित्य,समाचार,विवेचना और सीखने की भूख है तो भाई मेरे तुम्हें कौन इस भूख को मिटाने से रोक रहा है…आप जिस लेखक को पसंद करते हैं, सौ बार उसे पढ़ें,किसी दूसरे को उस पर क्या ऐतराज हो सकता है…और जो नाम आपने गिनाए हैं, कौन उन्हें नहीं जानता…खास तौर पर प्रमोद सिंह और अनूप शुक्ल को…आपने खुद ही लिखा है शुक्र है अनूप शुक्ल की लेखनी बोलचाल की है…यहां शुक्र है का मतलब मैं समझ नहीं पाया…क्या दूसरे लेखकों से आप सहज नहीं रह पाते जो अनूप जी के लिए शुक्र है जुमले का इस्तेमाल किया…और आपने खुद ही अनूपजी के लिए वो लिख दिया जो मैं अपनी टीआरपी वाली पोस्ट के ज़रिए कहने की कोशिश कर रहा था…अनूप जी की लिखने की बोलचाल (आप ही के शब्दों में) वाली जो खांटी शैली है, उसी ने उन्हें इतना लोकप्रिय और ब्लॉग जगत में इतना सम्मान दिलाया है…वो जो कहते हैं लोगों से सीधा संवाद कायम हो जाता है…अगर गौर से मेरी पोस्ट सागर ने पढ़ी होती तो उसमें भी उन्हें यही मिलता कि अगर आपने कोई गंभीर संदेश देना है तो वो उपदेश वाले स्टाइल में नहीं लोगों की पसंद वाली जुबान में देना होगा…चार बातें वो कहनी होगी जो दूसरे सुनना चाहते हैं…इ्न्हीं चार बातों में एक बात अपनी भी जोड़ दो जिसका कि आप संदेश देना चाहते हैं…इस स्टाइल को तो ग्राह्य कर लिया जाएगा लेकिन अगर आपने सिर्फ अपनी हांकते रहने का ट्रैक पकड़ा तो आपको परेशानी आ सकती है

दोपहर को सागर का कमेंट मिलने के बाद मैंने कमेंट के जरिए ही कहा था कि रात को मैं सागर की जिज्ञासाएं शांत करने की कोशिश करूंगा…साथ ही ये भी कहा था कि ये ढूंढने की कोशिश करना गुरुदत्त को लोगों ने मरने के बाद ही क्यों जाना कि गुरुदत्त वास्तव में क्या थे…

इस पर फिर सागर ने टिप्पणी भेजी…आप जो सवाल कर रहे हैं अपनी बात करूँ तो जायज़ नहीं है… और जहाँ से यह सन्दर्भ लिया है वहां यह कहने का मतलब था की की प्यासा फिल्म में गुरुदत्त के खास शायर का किरदार…. पर इतना खोल कर नहीं लिखा सोचा लोग समझ जायेंगे… मैं और भी लिखने वाला था की पुराणी दिल्ली की गलियों में दारु पी के डोलता रहता… हाँ इससे सहमत हूँ की कुछ आर्टिस्ट अंतर्मुखी होने के कारण गलत समझे जाते हैं या फिर देर से समझे जाते हैं… आर्टिस्टों से साथ ऐसा ज्यादा होता है उनकी सबसे बड़ी शिकायत यही होती है की मुझे या मेरे विचार कोई समझ नही रहा… अगर मैं उनका समकालीन होता तो कभी गलत नहीं समझता… क्यों की फिर वोही स्केल काम करता है… अभी अनुराग कश्यप अच्छी फिल्म बना रहे हैं तारीफ़ मिल रही है पर पैसा नहीं … फिर भी मैं उनका कायल हूँ… सिर्फ उनका ही नहीं, मैंने गाँधी को नहीं मारा, या फिर एक लड़का जो लोयला से टॉप करता है और पारिवारिक तनाव में पागल हो जाता है, दिन में तम्बाकू बेचता है, गन्दी गालियाँ देता है, और लंच में पुस्तकालय आकर रोज़ हिन्दू का सम्पादकीय पढता है…. उसे धमकाकर पूछो, कलाई तोड़ कर पूछो तो पढाई छोड़ने के १४ साल बाद भी ग्लूकोज़ का अणुसूत्र याद रहता है… मैं उसका कायल हूँ… अपने दफ्तर में पोछा लगाने वाले कुमार भैया का भी हूँ जो रोज़ की परेशानियों से बाहर निकलना जानते हैं…हाशिये पर के लोगों को पहले रखें मैं उनके साथ मिलूँगा… यह अपनी तारीफ नहीं है यह मजबूरी है, कमजोरी भी खुदा जाने ताकत भी… हाँ, सागर कहिये सिर्फ… कुछ हक़ आप अपने ब्लॉग के शुरूआती दिनों से ही दे चुके हैं..दिवाली की शुभकामनाएं आपको भी…आप अगर आधी जीत कह रहे है में आपकी पूरी जीत की दुआ करता हूँ इसमें शामिल रहने की भी कोशिश करता हूँ जीत मिले हमें “आमीन”

सागर की ये दूसरी टिप्पणी पढ़ कर तो मैं भी चकरा गया कि वास्तव में वो कहना क्या चाहते हैं…लेकिन मैं जो समझा हूं, उसी के अनुरूप फिल्मों के माध्यम से ही अपनी बात कहने की कोशिश करता हूं…गुरुदत्त की कहानी क्यों ट्रेजिडी बन गई…कागज के फूल में गुरुदत्त ने अपना सब कुछ झोंक दिया था…लेकिन फिल्म फ्लाप हो गई…गुरुदत्त ऐसा टूटे कि फिर उठ न सके…गुरुदत्त की मौत के बाद ज़रूर सभी ने गुरुदत्त के कसीदे पढ़ना शुरू कर दिया..टाइम मैगजीन ने कुछ साल पहले गुरुदत्त की प्यासा को विश्व की कालजयी 100 फिल्मों में शुमार किया था…गुरुदत्त जीते जी जिस सम्मान को तरस गए, मरने के बाद वो उन पर भरपूर लुटाया गया..
गुरुदत्त की भी छोड़ो, मैं करता हूं सत्तर के दशक की बात…उसी दौर में अमिताभ बच्चन पॉपुलर सिनेमा की पहचान बन गए थे…उन्हें वनमैन इंडस्ट्री कहा जाने लगा था…लेकिन ये भी इतेफाक ही है कि उन्हीं दिनों में अंकुर, निशांत, मंथन, चक्र जैसी समांतर सिनेमा या आम भाषा में कहे तो आर्ट फिल्मों का बनना शुरू हुआ…आर्ट फिल्मों को प्रबुद्ध दर्शक मिले और अमिताभ की फिल्मों को समाज के हर वर्ग का दर्शक…लेकिन उसी दौर में एक धारा और भी बही…मध्य धारा…आर्ट और पापुलर सिनेमा के बीच की धारा…इसे बहाया ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, गुलजार जैसे निर्देशकों ने…गुड्डी, मेरे अपने, आनंद, सत्यकाम, बावर्ची,चुपके चुपके, मिली, जुर्माना, खूबसूरत, गोलमाल, दिल्लगी, बातो बातो में, रजनीगंधा न जाने कितनी बेहतरीन फिल्मों ने…जिन्हें आर्ट के दर्शक भी मिले और पापुलर सिनेमा के भी…यही मैं ब्लॉगिंग के लिए भी कह रहा हूं कि बीच का रास्ता निकालना चाहिए…एक बात और, क्या कोई बता सकता है कि अब आर्ट फिल्में क्यों नहीं बनती…क्यों उन्होंने पापुलर सिनेमा के सामने दम तोड़ दिया…और जो तुमने अनुराग कश्यप का जिक्र किया है, अच्छी सोच वाले निर्देशक हैं…लेकिन उन्हें अपनी टेलेंट पर इतना ही भरोसा है तो वो अपनी फिल्में बेचने के लिए सेक्स की ओवरडोज़ का सहारा क्यों लेते हैं….

सागर भाई, राजकपूर भी किसी महान या गंभीर फिल्मकार से एक इंच भी कम नहीं थे…लेकिन उन्होंने कलात्मक होते हुए भी पापुलर स्ट्रीम ही पकड़ी…मेरा नाम जोकर में उनकी क्लास चरम पर थी, लेकिन नतीजा क्या हुआ फिल्म फ्लाप हो गई..कर्जा चढ़ गया…उसी के बाद राजकपूर ने कहा था कि अब जो दर्शक चाहते हैं, वहीं मैं उन्हे दूंगा…फिर राजकपूर ने बॉबी बनाई और सफलता का नया इतिहास रच दिया…राजकपूर खुद चार्ली चैपलिन को अपना आदर्श मानते हैं…कि एक जोकर को दिल में चाहे जितना भी दर्द क्यों न हो जमाने को खुशियां ही बांटनी चाहिए…

आखिरी बात दाल को तड़का न लगाया जाए तो वो बेमज़ा होती है और अगर सिर्फ तड़का ही तड़का हो तो हाजमा खराब हो जाता है…जरूरत है सही दाल में वाजिब तड़का लगाने की…

स्लॉग ओवर
मक्खन दोपहर के 3 बजे बड़ी तेज़ी से घर आया…चेहरा खुशी से चमक रहा था…आते ही मक्खनी को आवाज दी…मक्खनी किचन में थी…मक्खन ने आदेशItalic दिया…सब काम छोड़कर बेडरूम में आए…मक्खनी बेचारी गैस वगैरहा बंद करके आई…तब तक मक्खन खिड़कियां वगैरहा सब बंद करके कमरे में अंधेरा कर चुका था…बेड पर लेटे मक्खन ने मक्खनी को भी बेड पर आने के लिए कहा…मक्खनी बेचारी ने वैसा ही किया…मक्खनी के आते ही मक्खन ने दोनों के ऊपर रज़ाई खींच ली…

फिर मक्खनी से बोला…देख..मेरी रेडियम की नई घड़ी…अंधेरे में कितना चमकती है…

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