कांटा लगा, हाय लगा…खुशदीप

आज बात उस कांटे की जो इन दिनों भारत के हर आम आदमी को लगा हुआ है..ये है महंगाई का कांटा…हमको भी महंगाई ने मारा…तुमको भी महंगाई ने मारा…इस महंगाई को मार डालो…मनमोहन सिंह जी लाख भरोसा दिलाएं कि भारत पर मंदी का ज़्यादा असर नहीं पड़ा…लेकिन भईया अपने लिए तो सब मंदा ही मंदा है…महीने की 12-13 तारीख आते न आते पहली तारीख का इंतज़ार होने लगता है…

अब तो अपना डेबिट कार्ड भी ताक पर रख दिया है….डेबिट कार्ड जेब में हो तो आदमी अपने को किसी शहंशाह से कम नहीं समझता…ऐसे खरीददारी करता है जैसे सब बाप का माल हो और कभी भुगतान करना ही नहीं पड़ेगा…और इन एमएनसी और माल की बॉय वन, गेट वन फ्री ऑफर के चलते जेब में कितना बड़ा सुराख होता है, इसका अहसास तब होता है जब चिड़िया खेत चुग गई होती है…अब तो जेब में जितने पैसे होते है, उतनी ही खरीददारी करते हैं…कैश से भुगतान करते वक्त आदमी बस ज़रूरत की ही चीज़ें खरीदता है…

सवाल है कि समस्या हैं कहां…देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अर्थशास्त्र की समझ पर कौन ऊंगली उठा सकता है…वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी हो या गृह मंत्री पी चिदंबरम ( पूर्व वित्त मंत्री) या फिर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया…सभी जानेमाने अर्थशास्त्री…इन सभी पर सरकार की ओर से देश के नागरिकों को राहत पहुंचाने की ज़िम्मेदारी है…लेकिन अजीब तो तब लगता है जब यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को चिट्ठी लिखकर कहना पड़ता है कि महंगाई से आम आदमी त्रस्त है और हालात पर काबू पाने के लिए ज़रूरी कदम उठाए जाने चाहिए…

(साभार- राजेंद्र पुरी)

ज़ाहिर है मनमोहन सिंह के कंधों पर सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी हैं और सोनिया और राहुल को कांग्रेस की राजनीतिक ज़मीन को देखना है…कांग्रेस आम आदमी के बढ़ते कदम, हर कदम पर भारत बुलंद के नारे के साथ लगातार दूसरी बार दिल्ली की गद्दी तक पहुंची है…सोनिया की प्रधानमंत्री को चिट्ठी का मतलब क्या है…क्या सरकार और कांग्रेस अलग-अलग हैं…या सोनिया कहना चाहती हैं जो गलती है वो सरकार के पार्ट पर है कांग्रेस तो दूध की धुली है…

सवाल उठ सकता है कि महंगाई को लेकर सरकार के हाथ इस तरह बंधे क्यों है…सही पूछो तो सरकार के पास कीमतों के बारे में जो भी जानकारी आती है वो थोक बाज़ार या होलसेल इंडेक्स पर ही टिकी होती है…यानि रीटेल कीमतों की सही स्थिति जानने के लिए सरकार के पास सिस्टम ही नहीं है…और आपका-हमारा थोक से नहीं सिर्फ रीटेल कीमतों से ही वास्ता होता है…इस थोक और रीटेल के बीच ही महंगाई की सारी जड़ छुपी हुई है…सरकार की आर्थिक नीतियां आम आदमी की ज़रूरत से नहीं बाज़ार के मुनाफ़े-घाटे से प्रभावित होती हैं…यानि आम आदमी यहां भी बाज़ार से ही मात खाता है…

अर्थशास्त्र की मान्यता है कि कीमतें बाज़ार में डिमांड और सप्लाई के सिद्धांत से तय होती हैं..लेकिन देश में महंगाई का जो दौर चल रहा है वो किसी दूसरे खेल की ओर ही इशारा करता है…बाज़ार में स्टोर खाने-पीने या रोज़ाना इस्तेमाल की ज़रूरी चीज़ों से अटे पड़े हैं…पर खरीददार गायब हैं…अगर हैं भी तो उनकी जेब में पर्याप्त माल नहीं है…यानि बाज़ार में ज़रूरी सामान की सप्लाई तो बदस्तूर जारी हैं….अगर किल्लत नहीं है तो फिर कीमतें बढ़ती जाने की असली वजह क्या है…ऐसी बात नहीं कि मानसून अच्छा नहीं होने की वजह से फसलें बिल्कुल चौपट हो गई हैं…आज ही खबर आई है कि हरियाणा में धान की बंपर फसल हुई है…

फिर कौन सी ताकतें है, इस खेल के पीछे…बाज़ार खोलने की उदार नीति का दोनों हाथों से फायदा उठाकर क्या ये ताकतें आज इतनी निरंकुश हो चुकी हैं कि सरकार भी इनके आगे खुद को बेबस महसूस कर रही है…ये किसी से छुपा नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में विश्व की अर्थव्यवस्था है…अंधाधुंध मुनाफा कमाने की गरज से ये कंपनियां कीमतों में लगातार इज़ाफ़ा करती रहती हैं…एक सोची समझी रणनीति के तहत ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया देश के पूरे रीटेल बाज़ार को अपने कब्ज़े में लेना चाहती है…ये आर्थिक उपनिवेशवाद ठीक उसी तरह है जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में आकर धीरे-धीरे पूरे देश को गुलाम बना लिया था…

सरकार की ओर से ये भी तर्क दिया जाता है कि कीमतें बढ़ना आज सिर्फ भारत की नहीं, दुनिया के तमाम देशों की समस्या है…लेकिन भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आज आम आदमी को खाने के लिए रोटी ही नहीं नसीब हो पा रही है…मुझे देश के इस हालात में आने की सबसे बड़ी वजह जो नज़र आती है…वो है आर्थिक सुधारों के दो दशकों में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियो की कठपुतली बना दिया गया है…महंगाई पर काबू पाने के लिए आज किसी रॉकेट साइंस की नहीं बल्कि ठेठ देसी नुस्खों की ज़रूरत है…

error

Enjoy this blog? Please spread the word :)