सूरज का सातवां घोड़ा…खुशदीप

आप जानते हैं सूरज के सातवें घोड़े के बारे में…आज सूर्य ग्रहण है…हरिद्वार में महाकुंभ आरंभ हो चुका है…लेकिन मैं इस पोस्ट में सिर्फ सूरज के सातवें घोड़े की बात करूंगा…कैसे इस सातवें घोड़े पर ही टिका है आपका, मेरा, हम सब का नसीब, हमारे देश का नसीब…

बताते है कि इस बार महाकुंभ पर जो ग्रहयोग बने हैं वो 535 साल बाद बने हैं…मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और सूर्य ग्रहण एक साथ…ज़ाहिर है सदी का पहला महाकुंभ ऐसे ग्रहयोग के बीच हो रहा है तो हरिद्वार जाकर पवित्र गंगा में डुबकी लगाने को हर कोई अपना सौभाग्य समझेगा…इस मौके पर जिसकी जो आस्था है, उसका मैं पूरा सम्मान करता हूं…लेकिन इस पोस्ट पर मेरा आग्रह धार्मिक न होकर सामाजिक है…सूर्य ग्रहण को लेकर हर एक के अपने विचार हो सकते हैं…लेकिन मुझे सिर्फ सातवां घोड़ा याद आ रहा है…(दिवंगत धर्मवीर भारती जी के कालजयी उपन्यास सूरज का सातवां घोड़ा पर इसी शीर्षक के साथ श्याम बेनेगल 1992 में बेहतरीन फिल्म भी बना चुके हैं…)

हिंदू पौराणिक कथा के मुताबिक सूर्य देवता के रथ को सात घोड़े खींचते हैं…इनमें छह घोड़े हट्टे-कट्टे हैं…लेकिन सातवां घोड़ा कमज़ोर और नौसिखिया है…वो हमेशा सबसे पीछे रहता है…लेकिन पूरे रथ के आगे बढ़ने की गति इस सातवें घोड़े की चाल पर ही निर्भर करती है…अब ज़रा इसी संदर्भ में अपने प्यारे देश भारत की बात सोचिए…पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश को 2020 तक पूर्णत विकसित होने का विज़न दिया…लेकिन क्या देश सही मायने में तब तक विकसित बन सकता है जब तक देश में आखिरी पायदान पर खड़ा व्यक्ति भूखा है…जिसके सिर पर छत नहीं है…तन पर पूरे कपड़े नहीं है…हम महानगरों में बड़े बड़े म़ॉल्स, फ्लाईओवर्स, आर्ट ऑफ द स्टेट एयरपोर्टस देखकर बेशक कितने ही खुश हो लें लेकिन देश सही मायने में तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक इस देश में आखिरी पायदान पर खड़े शख्स के पैरों में भूख, बेरोज़गारी और बीमारी की बेड़ियां हैं…मैं इस शख्स को ही भारत के सूरज का सातवां घोड़ा मानता हूं…हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक दिन ऐसा भी आता है कि जब बाकी के छह घोड़े उम्र ढलने की वजह से अशक्त हो जाते हैं…तब सूर्य देवता के रथ को आगे ले जाने का सारा दारोमदार इस सातवें घोड़े पर ही आ टिकता है…तो भारत के रथ को दुनिया में आगे बढ़ाने के लिए उसके सातवें घोड़े को ताकत कैसे मिले, क्या ये सवाल हमें आंदोलित कर सकता है…

मैंने सुना है महाकुंभ के लिए इस बार समूचा बजट 525 करोड़ रुपये का है…ज़ाहिर है देश विदेश से पांच करोड़ श्रद्धालु अगले तीन महीने में हरिद्वार में जुटेंगे…130 वर्ग किलोमीटर में फैली कुंभनगरी में सारी व्यवस्थाओं पर मोटी रकम खर्च होना लाज़मी है…लेकिन कुंभ का आस्था के अलावा बाज़ार शास्त्र भी है…ज़्यादा विस्तार में न जाकर इस संदर्भ में आपको सिर्फ एक उदाहरण देता हूं…अगले तीन महीने में हरिद्वार में सिर्फ़ फूलों-फूलों का ही 400 करोड़ रुपये का कारोबार होगा…ज़ाहिर है ये फूल और दूसरी पूजा सामग्री गंगा में ही जाएगी…यानि गंगा का प्रदूषण कई गुणा और बढ़ जाएगा… उसी गंगा का जिसकी सफ़ाई के लिए हम करोड़ों रूपये के मिशन बना रहे हैं…

इंसान का लालच पहाड़ों को जिस तरह नंगा कर रहा है, प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ता जा रहा है…धरती गर्म (ग्लोबल वार्मिंग) होते जाने की वजह से ग्लेशियर्स खत्म हो रहे हैं…गंगा समेत हिमालय की सारी नदियां सिकुड़ती जा रही है…अब आपको गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य कमाने का मौका मिले तो ये सवाल ज़रूर सोचिएगा कि आने वाले महाकुंभों के लिए क्या गंगा मैया बचेगी भी…अगर मन में कुछ आशंका पैदा होती है तो क्या हमारा फर्ज़ नहीं हो जाता कि हम अभी से चेत जाएं…सोती सरकार को जगाएं…करोड़ों टन कचरा गंगा में बहाने वालों को समझाएं…भईया जब गंगा ही नहीं बचेगी तो फिर काहे की आस्था और काहे का कुंभ….न फिर तुम और न ही हम…

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