हम ब्लॉगिंग क्यों कर रहे हैं…खुशदीप

कल मैंने पोस्ट लिखी थी आंखों का भ्रम…उसमें लिखा था कोई भी बात हो जब तक सारे तथ्यों का पता न हो, नतीजा निकालने की जल्दी नहीं करनी चाहिए…फिर न जाने क्यों आखिर में ये लाइन भी लिख दी थी कि ब्लॉगवुड में आजकल जिस तरह का माहौल दिख रहा है, उसमें ये चिंतन और भी अहम हो जाता है…

और रात को आफिस से आया तो ब्लॉगवाणी पर जिस पोस्ट पर जाकर सबसे पहली नज़र टिकी वो थी भाई शेर सिंह (जिन्हें आप सब ललित शर्मा के नाम से जानते हैं) का ब्लॉगिंग को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कहने का ऐलान…मुझे मस्तमौला कहा जाता है…चाहता तो आज भी ललित जी को टंकी से जोड़कर गुदगुदाने वाले अंदाज़ में ब्लॉगिंग न छोड़ने की अपील कर सकता था…लेकिन मैं ऐसा करूंगा नहीं…ब्लॉगवुड में ऐसा कुछ हो रहा है जिसे देखकर अब मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर भी डर के मारे बाहर आने से कतराने लगा है…दरअसल मेरा सवाल ललित भाई से नहीं है कि उन्होंने अचानक ये फैसला क्यों किया…आज मेरा सवाल खुद खुशदीप सहगल से है कि वो ब्लॉगिंग क्यों कर रहा है…ललित भाई तो सुलझे हुए मैच्योर इनसान है…अपना भला बुरा अच्छी तरह समझते हैं…अगर उन्होंने बैठे-बिठाए ब्लॉगिंग छोड़ने का फैसला किया तो इसके पीछे ज़रूर कोई न कोई गहरी चोट होगी…ये वजह पूछ कर मैं उनकी निजता में दखल भी नहीं देना चाहता…लेकिन उनकी एक बात जिसे भाई अविनाश वाचस्पति ने अपनी पोस्ट में दोहराया भी कि एक दिन तो ब्लॉगिंग को छोड़कर सभी को जाना है…इस सवाल ने मुझे कचोट कर रख दिया है…क्या एक दिन मैं भी…

देर सबेर हो भी सकता है कि मेरा मन भी उचाट हो जाए या मैं जीविका से जु़ड़े कार्यों में इतना व्यस्त हो जाऊं कि न चाहते हुए भी मुझे ब्लॉगिंग को राम-राम कहनी पड़े…ब्लॉगिंग में आए-दिन की उठा-पटक देख कर मन खिन्न ज़रूर है लेकिन अभी ऐसी स्थिति भी नहीं कि ब्लॉगिंग के लिए लैपटॉप को ताला लगा दूं…हां ये ज़रूर हो सकता है कि अपनी सक्रियता घटा दूं…अभी जो रोज़ एक पोस्ट डालकर आप सबको पकाता हूं, आगे से हफ्ते में एक-दो बार ही ब्लॉग पर आपका सिर खाऊं..लेकिन ऐसा करने से पहले कुछ सवाल ज़रूर उठाना चाहता हूं…अगर हो सके तो आप भी अपने मन की बात इन सवालों के ज़रिए ढूंढने की कोशिश कीजिएगा…

हम ब्लॉगिंग क्यों कर रहे हैं…

जहां तक मेरा सवाल है मैं तो सिर्फ और सिर्फ आत्मसंतु्ष्टि के लिए ऐसा कर रहा हूं…रोज़ पोस्ट लिख कर मैं कोई तीर नहीं मार रहा बल्कि अपना ही दिन भर का तनाव दूर भगाता हूं…हौसला अफ़जाई के लिए आपकी जो टिप्पणियां आती हैं, वो मेरे लिए टॉनिक का का काम करती हैं…और अगर कोई समझता है कि ब्लॉग में कलमतोड़ लेखन के ज़रिए हम समाज को बदल डालेंगे तो ये फिलहाल मुंगेरी लाल के हसीन सपने से ज़्यादा कुछ नहीं लगता…


क्या हम स्कूल के बच्चे हैं…

मैं देख रहा हूं कि जिस तरह स्कूल के बच्चों में टॉप आने के लिए होड़ लगी रहती है, वैसी ही एक अंधी दौड़ ब्लॉगवुड में भी है…स्कूल के बच्चों की तरह ही हममें ईर्ष्या भाव, ग्रुप बनाकर एक दूसरे की टांग खिंचाई करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है…हम ये चिंता छोड़कर कि हमें क्या लिखना है, ये नज़र ज़्यादा रखते हैं कि दूसरा क्या लिख रहा है…और यही सारी समस्या की ज़़ड़ है…


पोस्टों की चर्चा का महत्व क्या है…

सात महीने में मैंने जो अनुभव लिया है, उसमें मुझे लगता है (हो सकता है मैं गलत हूं) कि ब्लॉगवुड में सबसे ज़्यादा वैमनस्य फैलाने के लिए ये चर्चा वाली पोस्टें ही ज़िम्मेदार है…अगर कोई चर्चाकार पूरी ईमानदारी और समर्पण भाव के साथ भी चर्चा करता है तो फेवरिटिस्म के आरोपों से बच नहीं सकता…इन चर्चाओं का सबसे ज़्यादा जो महत्व मुझे नज़र आता है वो ये है कि ये किसी भी ब्लॉगर की चिट्ठाजगत के सक्रियता क्रमांक को सुधारने में उत्प्रेरक का काम करती हैं…और इसी चक्कर में सारा गुलगपाड़ा होता है…मेरा सवाल है कि जब एग्रीगेटर मौजूद हैं तो फिर इन चर्चाओं की ज़रूरत ही कहां है…एग्रीगेटर खुद ही स्क्रॉल के ज़रिए ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं करते कि  24 घंटे की सभी पोस्टों के लिंक रोटेशन के आधार पर आते रहें…रेंटिंग का कोई सर्वमान्य फार्मूला निकालकर हर पोस्ट की रैटिंग की जाती रहे…इससे खुद-ब-खुद अच्छे लिंक हर पाठक को मिलते रहेंगे…


संवादहीनता की बीमारी

मेरा अपना मानना है कि ज़्यादातर गलतफहमी की वजह संवादहीनता होती है…अगर आपको किसी से कोई शिकायत है तो उसे सार्वजनिक मंच पर लाने की जगह पहले उस शख्स से दिल खोल कर बात करनी चाहिए…मेरा दावा है कि अगर ऐसा होता है तो आधे से ज़्यादा झगड़े तो स्वत ही खत्म हो जाएंगे…अरे बात करने में क्या जाता है…अपना गुबार निकाल दीजिए…दूसरे की व्यथा सुनिए…यही अपने आप में हर मर्ज की दवा है…

नियम-कायदे न होना

ब्लॉगिंग वैसे भी खुला खेल फर्रूखाबादी है…कोई नियम नहीं, कोई कायदा नहीं…सब अपनी मर्जी के मालिक…लेकिन ये प्रवृत्ति कहीं न कहीं निरंकुशता को भी जन्म दे रही है…क्या वरिष्ठ ब्लॉगरजन इस दिशा में कोई पहल नहीं कर सकते…पत्रकारिता में कोई किसी पर डंडा नहीं चलाता, फिर भी हर पत्रकार पत्रकारिता धर्म से जु़ड़ी बातों का पालन करता है…मसलन बच्चों और महिलाओं से जुड़ी कोई नेगेटिव पोस्ट है तो उनकी पहचान छुपाई जाएगी…चेहरे ब्लर कर दिए जाएंगे…दूसरों के धर्म पर सवाल उठाने वाली रिपोर्टिंग से परहेज किया जाएगा, बिना पुष्टि या तथ्यों की पड़ताल के कोई रिपोर्ट नहीं लिखी जाएगी…अगर शिकायत या आरोप वाली कोई बात है तो दूसरी पार्टी से बात कर उसका वर्जन भी लिया जाएगा…दोनों वर्जन आने के बाद ही रिपोर्ट प्रकाशित या प्रसारित की जाएगी…लेकिन ब्लॉगिंग में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है…जिसे चाहे गरिया दो, जो चाहे शब्द लिख दो…कोई नहीं डरता…लेकिन ऐसा करने वाले एक बार साइबर क्राइम के चपेटे में आ गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे…इसलिए अच्छा है कि हम ही समझ जाएं…

वरिष्ठ ब्लॉगरजन आचार-संहिता बनाएं…

ब्लॉगवुड में ऐसे कई निर्विवाद और वरिष्ठ ब्लॉगरजन है जिनका हर कोई सम्मान करता है…ये आपस में तय करके ब्लॉगिंग के लिए कोई आचार-संहिता बनाएं…ब्लॉगिंग को साफ सुथरे और सुचारू रूप से चलाने के लिए हर ब्लॉगर के लिए उस आचार-संहिता का पालन करना ज़रूरी हो…अगर किसी ब्ल़ॉगर को कोई शिकायत हो तो पहले इन्हीं वरिष्ठ ब्लॉगरजन के मंडल के पास ही दर्ज कराए…और अगर कोई ब्लॉगर इन नियमों का पालन नहीं करता तो उसके खिलाफ एक्शन लेने का अधिकार भी इसी मंडल के पास रिज़र्व हो…

ये मात्र मेरे विचार हैं, ज़रूरी नहीं आप सब इनसे सहमत हों…लेकिन कोई भी समाज तभी समाज बनता है जब नियम कायदों से चलता है…बेलगाम रहने पर तो जंगलराज ही रहता है…जैसा कि आजकल हिंदी ब्लॉगिंग में दिखने भी लगा है…मैं सवाल करता हूं कि अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में वैसे ही टंटे कम हैं जो हम ब्लॉगिंग में भी उन्हें ही पाल लें…

अंत में ललित भाई से आग्रह करूंगा, जिस वजह या शख्स की वजह से भी आपने ये फैसला किया, उसके साथ एक बार दिल खोल कर अपनी बात ज़रूर कर लें…हो सकता है दोनों ओर से गुबार निकल जाएं और सारी गलतफहमियां दूर हो जाएं…एक छोटे भाई के कहने से ललित भाई ऐसा करके तो देखिए…फिर उसके बाद जो भी आप फैसला करें, हम सबको स्वीकार होगा…ब्लॉगिंग रहे न रहे, हमारे आपस में जो संबंध बने हैं वो तो तमाम उम्र बने ही रहेंगे…


एक गाने की चंद लाइनों से पोस्ट को खत्म करता हूं…

इन उम्र से लंबी सड़कों को, हमने तो खत्म होते देखा नहीं…
जीने की वजह तो कोई नहीं, जीने का बहाना ढूंढता है,
एक अकेला इस शहर में आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है…
ढूंढता है…

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