मेरे (कु)तार्किक सवाल का (सु)तार्किक जवाब दीजिए…खुशदीप

आज बहुत संभव है कि जनलोकपाल को लेकर चल रहा गतिरोध टूट जाए…टीम अन्ना ने पहले ही साफ़ कर दिया था कि अन्ना का अनशन आमरण अनशन नहीं है…जब तक उनका स्वास्थ्य अनुमति देगा, वो अनशन करेंगे…अनशन के छठे दिन अन्ना के खून और यूरिन में कीटोन मिलना संकेत है कि अन्ना के शरीर ने आवश्यक जैविक क्रियाओं की ऊर्जा के लिए चर्बी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है…ऐसे में सरकार और टीम अन्ना दोनों को ही चाहिए कि अन्ना का अनशन समाप्त कराने के लिए प्रयास करे…हो सकता है संसद में सरकार आज कोई बड़ी घोषणा करे…
टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण पहले ही कह चुके हैं कि अच्छे सुझाव आते हैं तो उन पर विचार किया जा सकता है…सभी परिस्थितियों पर विचार करने के बाद मुझे लग रहा है कि सरकार के लोकपाल और टीम अन्ना के जनलोकपाल से कहीं ज़्यादा लॉजिक नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्‍स राइट फॉर इन्‍फॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) के मंच तले लाए अरुणा राय के बिल में है…जिसमें एक की जगह पांच लोकपाल का सुझाव दिया गया है…
1.राष्ट्रीय भ्रष्टाचार निवारण लोकपाल– इसके दायरे में प्रधानमंत्री को कुछ शर्तो के साथ लाया जाए…प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला चलाने का फैसला लोकपाल की पूर्ण पीठ करे और सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण पीठ अनुमोदन करे. सांसद और वरिष्ठ मंत्री लोकपाल के दायरे में रहें…

2.पृथक न्यायपालिका लोकपाल– न्यायपालिका के लिए अलग से…

3.केंद्रीय सतर्कता लोकपाल– दूसरी व तीसरी श्रेणी के अफसरों के भ्रष्टाचार के लिए सतर्कता आयोग को ही और अधिक ताकतवर बनाया जाए…

4.लोकरक्षक कानून लोकपाल- भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले लोगों की सुरक्षा मुहैया कराने के लिए…

5.शिकायत निवारण लोकपाल-जन शिकायतों के जल्द निपटारे के लिए…

मेरी राय में एक जनलोकपाल पर सारा लोड डालने की जगह कम से कम पांच लोकपाल ज़्यादा बेहतर ढंग से काम तो कर सकेंगे…

अरुणा राय की टीम ने जो लोकपाल बिल तैयार किया है इसमें प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात तो है लेकिन उनका मसौदा न्यायपालिका को इस दायरे में रखने के समर्थन नहीं करता है…जबकि अन्ना के जनलोकपाल बिल में प्रधानमंत्री और न्यायपालिका दोनों को दायरे में रखने की बात कही गयी है जबकि सरकारी बिल प्रधानमंत्री और न्यायपालिका दोनों का विरोध कर रहा है…टीम अन्ना चाहती है कि लोकपाल केंद्र सरकार के कर्मचारियों के मामले को देखे जबकि एनसीपीआरआई का मानना कि राज्य सरकार के कर्मचारियों के मामलों को लोकायुक्त देखे. इसी तरह टीम अन्ना का मानना है कि शिकायतों को सुनने के लिए लोकपाल के अधीन एक अधिकारी होना चाहिए जबकि एनसीपीआरआई एक अलग शिकायत निवारण तंत्र चाहता है.

इस वक्त ज़रूरत है अपनी जिद पर अड़े रहने के बजाए एक दूसरे की बातों को शांत मन से सुना जाए…जिसकी जो बात सबसे अच्छी है उसे ही फाइनल लोकपाल बिल में जगह दी जाए…मकसद भ्रष्टाचार को मिटाना होना चाहिए एक दूसरे को नहीं…गांधी का यही फर्क है कि वो अपने आचरण से विरोधियों को भी अपना मुरीद बनाने का हुनर रखते थे…मान लीजिए सरकार या संसद मन से नहीं दबाव में टीम अन्ना के बिल को ही पारित कर देती है…तो ये कसक आगे चलकर कहीं न कहीं निकलेगी ज़रूर…ज़रूरत भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सबके साथ मिलकर चलने की है…

अब आता हूं अपने (कु) तार्किक प्रश्न पर…

अनशन के छठे दिन तो अन्ना कुछ नहीं बोले…लेकिन पहले पांच दिन वो वक्त वक्त पर स्टेज से लोगों को संबोधित करते रहे…बीच-बीच में टीम अन्ना के सदस्य और कवि कुमार विश्वास अपनी कविताओं से लोगों में जोश भरते रहे…विभिन्न कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियां देते रहे…इस दौरान अन्ना-अन्ना-अन्ना का गुणगान भी मंच से होता रहा…विशेष तौर अन्ना के ऊपर बने गीत गाए जाते रहे…मेरा सवाल है कि क्या अन्ना के लिए अपना गुणगान सुनते रहना ठीक है…देशभूमि की शान में गाने और बात है लेकिन एक व्यक्ति का अपना ही महिमामंडन सुनना अलग बात है…क्या अन्ना को अपने सहयोगियों को ऐसा करने के लिए मना नहीं करना चाहिए था…या अन्ना को अपने प्रशंसा-गीत अच्छे लगते हैं…क्या गांधी भी ऐसा ही करते…


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