मंगलवार और बुधवार को देश के दो शहरों में ऐसी घटनाएं हुईं, जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं कि हमारे बड़े शहरों में लोगों पर तनाव किस कद्र हावी होता जा रहा है…चुनौतियों से जूझने की जगह किस तरह लोग ज़िंदगी से हार मान कर खुद ही मौत को गले लगा रहे हैं…
पहले सूरत की घटना
सूरत के पालनपुर जकात नाका इलाके के शिखालेख कॉम्पलेक्स में चौथी मंज़िल के अपार्टमेंट में रहने वाली 32 साल की वंदना ने पहले अपने तीन मासूमों ( मुस्कान 7, अनु्ष्का 4 और शिवांग ढाई साल) की तकियों से मुंह दबा कर जान ली और फिर खुद भी दुपट्टे से फंदा डालकर फांसी लगा ली…वंदना का पति जय प्रकाश शर्मा एक निजी शिपिंग कंपनी में टग मास्टर के पद पर तैनात है और करीब ७५ हज़ार रुपये महीना कमाता है…मूल रूप से बिहार से नाता रखने वाला जयशंकर रत्नागिरी में तैनात और करीब डेढ महीने से घर नहीं आया था…इस परिवार का आस-पास में बिल्कुल आना-जाना नहीं था…इलाके में खारे पानी की सप्लाई होने की वजह से वॉचमैन रोज़ इस घर में मिनरल वाटर की बड़ी बोतल देने जाता था…उसी ने बुधवार सुबह घर की बेल बजाई…काफी देर तक दरवाज़ा नही खुला…घर के अंदर से बदबू आने की वजह से वॉचमैन का माथ ठनका तो उसने पड़ोसियों को ये जानकारी दी…पुलिस को बुला कर दरवाज़ा खोल कर देखा गया तो अंदर का मंज़र देखकर हर कोई सन्न रह गया…पुलिस को मौके से वंदना का एक सुसाइड नोट भी मिला है, जिसमें ज़िंदगी से तंग आकर जान देने की बात कही गई है…वंदना ने ये भी लिखा है कि इस घटना के लिए कोई और नहीं, वो खुद ही ज़िम्मेदार है….पुलिस ने बड़ी मुश्किल से वंदना के पति का फोन नंबर हासिल कर उसे घटना के बारे में बताया…पति और वंदना के घरवालों के पहुंचने के बाद ही पुलिस को पता चलेगा कि उसने ये क्यों कदम उठाया…
दूसरी पुणे की घटना
पुणे के बानेर इलाके के रामकृष्ण अपार्टमेंट में रहने वालों के लिए मंगलवार की सुबह दिल दहला देने वाली घटना के साथ हुई…यहां एक फ्लैट में रहने वाले चंद्रशेखर और उसके तीन बच्चों के शव अलग अलग कमरों से फंदों से झूलते मिले… चंद्रशेखर की बड़ी बेटी धनश्री का फंदा किसी तरह खुल गया और उसकी जान बच गई..पुलिस के मुताबिक चंद्रशेखर अपनी पत्नी वर्षा और बच्चों के साथ इस फ्लैट में रहता था…वर्षा से शादी से पहले चंद्रशेखर के दो तलाक हो चुके थे…बताया गया है कि चंद्रशेखर की वर्षा के साथ भी नहीं बनती थी और आए-दिन झगड़े होते रहते थे…
ये दोनों घटनाएं आपने पढ़ी…दोनों ही घटनाओं में ये तो साफ़ लगता है कि इनके पीछे आर्थिक परेशानी नहीं थी…फिर क्यों एक मां और एक पिता ने ऐसे कदम उठाए…अपनी निराशा से खुदकुशी की बात तो समझ आती है लेकिन इन छह मासूमों का क्या कसूर था, जिन्हें उन्हें जन्म देने वालों ने ही मौत की सज़ा दे डाली…दोनों ही घटनाएं कई सवाल भी उठाती है…सूरत की घटना खास तौर पर…क्या मां ने इसलिए बच्चों की जान लेकर खुदकुशी की, क्योंकि वो पति के बिना तीन छोटे बच्चों को अकेले संभालने का तनाव झेल नहीं पा रही थी…वजह तो पुलिस की जांच के बाद ही सामने आएगी…लेकिन अगर यही आस-पड़ोस में इस महिला का आना-जाना होता तो शायद वो अपना दर्द किसी और महिला के साथ बांट सकती थी…लेकिन बड़े शहरों की यही त्रासदी होती जा रही है कि अब पड़ोसियों से मिलना-जुलना तो दूर, कोई ये भी नहीं जानता कि साथ के घर में कौन रह रहा है…बच्चे भी बाहर जाकर खेलने की जगह घरों में ही पढ़ाई के अलावा टीवी, इंटरनेट, मोबाइल पर मस्त रहते हैं…ये महानगरों के विकास का नया डरावना चेहरा है…अभी पांच दिन पहले बैंगलुरू में जाने माने डॉक्टर अमानुल्ला ने पत्नी और दो जवान बेटों के साथ ज़हर के इंजेक्शन लेकर जान दे दी थी…वजह नर्सिंग होम और बच्चों को डाक्टर बनाने के लिए लिया गया मोटा कर्ज़ बताया गया…
ये सभी मामले विदर्भ के किसानों की खुदकुशी जैसे नहीं है जो दो जून की रोटी का जुगाड़ तक न होने और कर्ज़ के बोझ की वजह से मौत को गले लगाते हैं…ये शहरों में तनाव की वजह से ज़िंदगी से हारते लोग है…ज़रूरत ज़िंदगी को जीने के मोटीवेशन की है…इसके लिए सरकार के साथ एनजीओ और स्वयंसेवकों को भी आगे आना चाहिए…जो खास तौर पर ऐसे प्रोग्राम चलाएं जिनसे सीखा जा सके कि ज़िंदगी को जिस तरह लोगे, वो वैसी ही हो जाएगी…यहां जितने संसाधन आपके पास हैं, उन्हीं से छोटी छोटी खुशियां चुरा कर भी जीने का अंदाज़ बदला जा सकता है…डिप्रेशन में देखा गया है कि इनसान पर कोई फोबिया ऐसा हावी हो जाता है कि वो उस चीज़ से डर कर उससे भागने लगता है…ज़रूरत भागने की नहीं, उसी चीज़ का हिम्मत के साथ सामना करने की है…इसके लिए दूसरे सही मार्गदर्शन और मोटिवेशन दें तो किसी को भी अवसाद से निकाला जा सकता है…
सुनिए ये मेरा मनपंसद गाना,
कैसे जीते हैं भला, हमसे सीखो ये अदा….
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