क्या शरीर के कैंसर को छुपाने से कैंसर मिट जाता है…क्या चोरी पकड़े जाने पर बिल्ली के आंखें बंद कर लेने से उसकी चोरी माफ हो सकती है…कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को लेकर मेरी कुछ ऐसी ही राय है…दिल्ली का विकास और कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन दोनों अलग मुद्दे हैं…लेकिन सरकार ने अपनी सब कमज़ोरियों पर पर्दा डालने के लिए खूबसूरती के साथ दोनों को एक-दूसरे से जोड़ दिया…
ये बात सही है कि दिल्ली का विकास पिछले दस-पंद्रह साल में जितना हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ…साथ ही ये भी सच है कि दिल्ली में प्रति व्यक्ति 65,000 की औसत आय देश में सर्वाधिक है…क्या जो पहले से ही चमके हुए हैं, उन्हें और चमकाने से देश चमक जाएगा…क्या भारत का मतलब सिर्फ दिल्ली है…कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में न होते तो भी दिल्ली में विकास का घोड़ा तेज़-रफ्तार से दौड़ रहा था…कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर क्या एप्रोच होनी चाहिए थी, इसकी बेहतरीन मिसाल ब्रिटेन ने 2002 के मानचेस्टर गेम्स के आयोजन के दौरान दी…ब्रिटेन ने लंदन में सारा इन्फ्रास्ट्रक्चर होने के बावजूद ये खेल मानचेस्टर में कराए….वहां उस वक्त युवाओं मे बेरोज़गारी की समस्या चरम पर थी…मानचेस्टर को कॉमनवेल्थ गेम्स मिलने से वहां विकास के साथ रोज़गार के असीमित अवसर पैदा हुए…आज मानचेस्टर में वॉलमार्ट जैसे स्टोर खुले हुए हैं, जहां 18,000 युवाओं को रोज़गार मिला हुआ है…
हमारे यहां क्या हुआ…दिल्ली के लिए गेम्स मिले…उस दिल्ली को जिसका पहले से ही पेट भरा हुआ है…दिल्ली में जो भूखे पेट सोने को मजबूर थे, उन्हें तो पहले ही ताकीद कर दिया गया कि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कहीं नज़र भी न आना..सही है गरीबी नहीं मिटा सकते तो गरीब ही मिटा दो…क्योंकि हमारा मकसद जगमग दिल्ली दिखाकर विदेशियों की वाहवाही लूटना था, अपनी बुनियादी कमजोरियों को दूर करना नहीं…
कॉमनवेल्थ गेम्स पहले के वादे के मुताबिक बवाना जैसे दिल्ली के ही पिछड़े इलाके में कराए जाते तो भी बात कुछ समझ आ सकती थी…लेकिन वादे तो होते ही टूटने के लिए हैं…ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे उत्तराखंड की राजधानी बनाने का वादा पहले गैरसैंण से किया गया, लेकिन नौकरशाहों के दबाव के चलते देहरादून को ही राजधानी का दर्जा मिल गया…तर्क दिया कि देहरादून में इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है…ऐसे ही दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भी दलील दी गई….
पर्यावरण के सारे नियमों को ताक पर रखकर यमुना बेड पर कॉमनवेल्थ विलेज बनाया गया…अच्छी बात है लेकिन ये खेल निपटने के बाद इस विलेज के आलीशान फ्लैट्स का क्या होगा, उसके बारे में क्या सोचा गया…यही कि करोड़ों खर्च करने वालों को ये फ्लैट्स बेच दिए जाएंगे…दिल्ली के विधायकों ने तो दावा तक ठोंक दिया कि इन फ्लैट्स पर सबसे पहली दावेदारी उनकी बनती है, इसलिए उन्हें ही बेहद रियायती दरों पर ये फ्लैट्स मुहैया कराए जाएं…क्या ये अच्छा नहीं होता कि कॉमनवेल्थ विलेज को हॉस्टल जैसा रूप देकर बनाया जाता…जिससे गेम्स निपटने के बाद उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी को सौंप दिया जाता…एक झटके में उन छात्रों की मुसीबत खत्म हो जाती जो देश के दूर-दराज के इलाकों से बड़ी तादाद में दिल्ली पढ़ने के लिए आते हैं और हॉस्टल के लिए मारे-मारे फिरते हैं…हर साल की इस परेशानी से छुटकारा मिल जाता…
मैं आज़ादी के बाद देश में सबसे बड़ा विकास का जो काम मानता हूं, वो दिल्ली मेट्रो है…इस ख्वाब को हकीकत में बदलने का सारा श्रेय मेट्रोमैन ई श्रीधरन को जाता है…2002 में दिल्ली में पहली बार जब मेट्रो शुरू हुई तो कॉमनवेल्थ गेम्स का कहीं नामोंनिशान तक नहीं था….कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी नवंबर 2003 में दिल्ली को मिली थी…इसलिए कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में न भी होते तो भी मेट्रो ऐसे ही दौड़ रही होती और लाखों लोगों को रोज़ मज़िल तक पहुंचा रही होती…
ये बात भी सही है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए 70,000 करोड़ का जो खर्च है उसमें से 66,000 करोड़ अकेले दिल्ली के फेसलिफ्ट के लिए है…विशुद्ध खेल गतिविधियों पर 4,000 करोड़ ही खर्चे जाने हैं…लेकिन यहां मैं कहना चाहूंगा कि टैक्सपेयर से मिलने वाली इतनी बड़ी रकम जो दांव पर लगाई गई, क्या उस पर कड़ी निगरानी रखना हमारी सरकार का फर्ज नहीं था…क्यों एक ही आदमी (सुरेश कलमाडी) डेढ़ दशक तक इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन का सर्वेसर्वा बना रहता है…सरकार ने कलमाड़ी से सवाल पूछना तभी शुरू किया जब मीडिया ने भ्रष्टाचार को उजागर करना शुरू किया…
ये साफ हो चुका है कि लंदन में क्वीन बैटन समारोह को लेकर आयोजन समिति में मोटी बंदर-बांट हुई…जो टैक्सी लंदन में सौ-डेढ सौ पाउंड में आसानी से मिल जातीं, उन्हीं के लिए दिल्ली से निर्देश आया कि टैक्सियां को किराए पर लेने की कीमत साढ़े चार सौ पाउंड दिखाई जाए…अब सोचिए ये पता चलने के बाद लंदन की नज़र में हमारा कितना सम्मान बढ़ा होगा…अब अगर इस भ्रष्टाचार को उधेड़ना देशद्रोह है तो ऐसा देशद्रोह बार-बार करना चाहिए…
कॉमनवेल्थ गेम्स के इतिहास में आज तक छोटे से छोटे सदस्य देश का भी राष्ट्रप्रमुख कभी बैटन लेने लंदन में रानी के दरबार में नहीं पहुंचा…लेकिन पिछले साल हमारी राष्ट्रपति पहुंची…किसने और क्यों ये फैसला किया, ये अलग बात है…लेकिन महामहिम के लंदन प्रवास के दौरान आयोजन समिति की ओर से भ्रष्टाचार की खिड़की खोली गई…क्या इससे हमारा मान दुनिया की नज़रों में बढ़ा…हर्गिज़ नहीं…
हां, मैं तारीफ करूंगा इंदिरा गांधी की जिन्होंने दो साल के नोटिस पर ही दिल्ली में 19 नवंबर से 4 दिसंबर 1982 तक सफलतापूर्वक एशियन गेम्स करा कर गवर्नेंस की नई लकीर खिंची थी…यहां मैं इंदिरा के दौर और अबके दौर की एप्रोच का फर्क साफ करना चाहूंगा…
1982 में एशियन गेम्स की ज़िम्मेदारी स्पेशल ऑर्गनाइजिंग कमेटी (एसओसी) के हेड के तौर पर राजीव गांधी ने संभाल रखी थी…19 नवंबर को एशियन गेम्स के शानदार उद्घाटन के बाद राजीव गांधी प्रगति मैदान में अपने ऑफिस में बैठे थे…बाहर तेज़ बारिश हो रही थी…तभी किसी नौकरशाह ने आकर जानकारी दी कि एशियाड सेंटर में वेटलिफ्टिंग हॉल की छत रिसने लगी है और हॉल में पानी आ गया है…ये सुनते ही राजीव उठे और तत्काल एशियाड सेंटर पहुंच गए…तब तक रात के दस बज चुके थे…उस वक्त दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर जगमोहन थे….देखते ही देखते एक हज़ार मजदूरों को एशियाड सेंटर पहुंचाया गया…राजीव पूरी रात वहीं जमे रहे…सुबह जब सब कुछ ठीक होने का अच्छी तरह भरोसा हो गया, राजीव तभी घर लौटे…
आज राहुल गांधी में लोग राजीव गांधी का अक्स देखते हैं…लेकिन कॉमनवेल्थ पर इतना हल्ला होने के बाद भी राहुल ने इस पर कभी एक शब्द भी बोला…हर मुद्दे पर बोलने वाले राहुल यहां क्यों चुप रहे…सिर्फ इस वजह से कि उनकी पार्टी के ही लोग इस सारी गफलत के लिए ज़िम्मेदार हैं…राज्यं में विरोधी दलों की सरकारों को कोसना बहुत आसान है लेकिन अपनी ही सरकार की कमजोरियों पर निशाना साधने के लिए जो हिम्मत चाहिए, उसका परिचय अभी तक राहुल ने नहीं दिया है…ऐसे में मैं मणिशंकर अय्यर को साधुवाद देता हूं…कम से कम अपनी पार्टी को ही उन्होंने कॉमनवेल्थ का चटका आईना दिखाने की कोशिश तो की…ये सही है कि हमें हर वक्त अपनी खामियों का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए…लेकिन इसका क्या ये मतलब निकाला जाए कि अपने शरीर के कैंसर को दूर करने के लिए खुद का इलाज ही नहीं किया जाए…
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