पिछले दस-ग्यारह दिन में जो देखा, जिया, महसूस किया, सहा, शब्दों में उतार पाना बड़ा मुश्किल है…लेकिन एक अल्पविराम के बाद जीवन के रंगमंच पर नाचने के लिए आपको फिर उतरना ही पड़ता है…मुझे भी यही करना पड़ा है…पांच नवंबर को दीवाली वाले दिन सुबह ब्रह्ममुहुर्त (पौने पांच बजे) पर पापा के जाने से मेरी दुनिया बदल गई…बीमारी की वजह से पापा का शरीर अशक्त था…लेकिन मस्तिष्क पूरा सजग था…घर में छोटे होने की वजह से मुझे उनका सबसे ज़्यादा प्यार मिला…लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि छोटा होने के बावजूद पापा के अंतिम संस्कार की सभी रस्में मेरे हाथों से ही संपन्न होंगी…सबसे बड़े भाई की तबीयत ठीक नहीं थी…इसलिए पंडितजी के कहे के मुताबिक अंतिम संस्कार या सबसे बड़ा पुत्र करता है या सबसे छोटा, मुझे ही सारे संस्कार निभाने पड़े…शायद यहां भी पापा मेरे लिए अपना ज़्यादा प्यार छोड़ गए थे…
मेरठ का सूरजकुंड शमशान घाट हो या हरिद्वार का कनखल…कुशा घाट हो या हर की पैड़ी…मुखाग्नि से लेकर अस्थि विसर्जन, पिंडदान, पीपल का चालीस बाल्टियों से गंगा स्नान, पैतृक पुरोहित के पास बैठकर सदियों से चले आ रहे खानदानी रजिस्टर में आमद दर्ज कराना…हर अनुभव मुझे बड़ा करता गया…लेकिन अभी कुछ और भी होना बाकी था… तेरहवीं वाले दिन पिता के नाम की पगड़ी सिर पर बांधी गई तो एक नई ज़िम्मेदारी का अहसास मेरे अंदर तक घर कर गया, जिसे मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था…पापा का जो हाथ स्नेह से कभी मेरे सिर के बालों को दुलारता था, ठीक वही स्पर्श मैंने पगड़ी के रूप में सिर पर पाया…
पापा पार्टिशन के वक्त भारत में मेरठ आकर बसे तो महज सत्रह-अट्ठारह साल के थे…बेहतरीन स्टूडेंट…लेकिन सब कुछ पाकिस्तान में लुटा-पिटा कर आने के बाद परिवार को सहारा देना था तो छोटी उम्र में ही काम की तलाश में निकलना पड़ा…ये सिर्फ मेरे पापा के साथ ही नहीं हुआ…उस वक्त जो परिवार भी रिफ्यूज़ी बनकर भारत आए, सभी को ऐसे ही हालात से दो-चार होना पड़ा था…लेकिन दिन-रात की मेहनत रंग लाई…खुद स्टैंड हुए, परिवार को भी स्टैंड किया…ईमानदारी और ज़िंदादिली के बूते व्यापार में अच्छी साख बनाई…शादी के बाद मदद के लिए मां का हाथ मिला तो पापा के बिजनेस की तरक्की की रफ्तार और बढ़ गई…पहले पापा ने मुल्क का बंटवारा देखा था…अब घर में बंटवारा देखा…एक बार फिर पापा ने राजीखुशी सभी कुछ अपने हाथ से निकल जाने देना मंजूर किया…और नए सिरे से बिज़नेस में ज़ीरो से शुरुआत की…कई कष्ट झेले लेकिन मां के चट्टान की तरह साथ डटे रहने से हर बाधा को पार किया और फिर कामयाबी की नई इमारत खड़ी की…
पापा अपनी जन्मभूमि शेखुपुरा को याद करते थे लेकिन अपनी कर्मभूमि मेरठ से भी उन्हें उतना ही प्यार था…कभी मेरे पास नोएडा आते भी थे तो ज़्यादा दिन नहीं टिक पाते थे…उनका मन मेरठ में ही बसा रहता था…मेरठ में ऐसा कोई शख्स नहीं बचा होगा जो उनसे कभी मिला हो और तेरहवीं पर न पहुंचा हो…मेरठ में मैंने महसूस किया कि छोटे शहरों में रिश्तों को अब भी कैसे मान दिया जाता है…बड़े शहरों की कोरे स्वार्थ की मानसिकता और औपचारिक रस्म अदायगी से दूर किस तरह के मीठे अपनेपन का अहसास होता है…यही अपनापन मुझे ब्लॉगजगत में भी शिद्दत के साथ देखने को मिला…दूरियों की वजह से बेशक हम मिल न पाएं लेकिन विचारों से हम हमेशा एक-दूसरे के आसपास रहते हैं…पिता के जाने का दुख सहन करना आसान नहीं है लेकिन जिस तरह ब्लॉगजगत में हर किसी ने मेरे दुख को बांटा, उसे मेरे लिए शब्दों में व्यक्त कर पाना मुमकिन नहीं…सतीश सक्सेना जी और राजीव तनेजा भाई ने तो तमाम मसरूफियत के बावजूद 15 नवंबर को मेरठ पहुंच कर मुझे जिस तरह ढाढस बंधाया, उसे मैं ताउम्र नहीं भुला पाऊंगा…
पापा से जुड़ी यादों को इस गीत के ज़रिए ही सबसे अच्छी तरह व्यक्त कर सकता हूं…
तुझे सूरज कहूं या चंदा, तुझे दीप कहूं या तारा.
मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राजदुलारा…
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