ब्लॉगिंग के साथ देश में भी जैसा माहौल चल रहा है, उससे विरक्ति सी महसूस होने लगी है…सब कुछ प्रायोजित सा लगने लगा है…अप्रैल में अन्ना हज़ारे की मुहिम शुरू होने से लगा था कि सोए हुए देश के साथ अपनी ही मस्ती में डूबी सरकार को झिंझोड़ कर जगाने की कोई ताकत रखता है…लेकिन दो महीने भी नहीं हुए, भ्रम दूर होने लगे हैं…सपने देखने आसान हैं लेकिन उन्हें हक़ीकत में बदलना बहुत मुश्किल…अन्ना हज़ारे नेक आदमी हैं, उनके अंदर भली आत्मा वास करती है…लेकिन वो कहावत है न अकेला चना आखिर क्या क्या फोड़ सकता है…
अन्ना की टीम अपनी ओर से यथाशक्ति कोशिश कर रही है…लेकिन उसकी दिक्कत ये है कि उन्होंने सिर्फ पांच-छह लोगों को ही पूरी सिविल सोसायटी मान लिया है…सरकार शातिर है, पांच-छह लोगों से निपटने के उसके पास हज़ार रास्ते हैं…आज़ादी से पहले के डिवाइड एंड रूल फॉर्मूले को हमारी ये सरकार भी बखूबी इस्तेमाल करना जानती है…और इसके लिए टारगेट मिल भी जाते हैं…अन्ना की लकीर छोटी करने के लिए सरकार ने बाबा रामदेव की लकीर बड़ी करनी चाही…लेकिन बाबा को भी शायद गलतफहमी हो गई थी कि अब सरकार से कुछ भी मनवाया जा सकता है…भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या काले धन का मुद्दा, पूरे देश की समस्या है, किसी का इस पर पेटेंट तो है नहीं…फिर क्यों अकेले टीम अन्ना या अकेले रामदेव इस मुद्दे पर ऐसा दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं कि बस वो जो कह रहे हैं, वही सही है….अन्ना की टीम ने पहले सरकार के जाल में फंस कर लोकपाल ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल होना कबूल कर लिया….सरकार ने धीरे धीरे अपना असली रंग दिखाना शुरू किया तो अब टीम अन्ना फाउल फाउल चिल्लाते हुए सार्वजनिक बहसों के ज़रिए लोगों की राय जानने की भी बात कर रही है…
मैंने पहले भी अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि देश की तस्वीर बदलने के लिए पहले कुछ ऐसे नाम तलाश करने चाहिए जिनका जीवन खुली किताब रहा है…ईमानदारी का रिकार्ड पूरी तरह बेदाग रहा है…पीपुल्स प्रेज़ीडेंट डॉ अब्दुल कलाम, मेट्रोमैन ई श्रीधरन जैसे दस भी आदमी मिल जाएं तो उनकी सलाह लेकर पूरे देश में जनमत खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए…इससे भ्रष्टाचार या काले धन के खिलाफ लड़ाई कुछ ही लोगों तक सिमटी नहीं रह जाएगी…उससे व्यापक आधार मिलेगा…इन दो मुद्दों के साथ गरीबी, एजुकेशन, स्वास्थ्य, किसानों की बदहाली को भी फ्रंटफुट पर रखा जाना चाहिए…
देश की ये बदकिस्मती ही कहिए कि राजनीति के मोर्चे पर जितनी भी ताकतें हैं उनसे देश का मोहभंग हो चुका है…एक भी ऐसा नेता नहीं जो सबको साथ लेकर चलने की सलाहियत रखता हो…सरकार का विरोध करने की जिन पर ज़िम्मेदारी है, वो और ज़्यादा निराश करने वाले हैं…अटल बिहारी वाजपेयी के अस्वस्थ होकर राजनीति के पटल से हटने के बाद विरोधी खेमे में जो रिक्तता आई है, उसकी भरपाई करने वाला विकल्प दूर-दूर तक नज़र नहीं आता…सदन की गरिमा अब अतीत की बात होकर रह गई है…राष्ट्रीय दल हो या प्रांतीय दल, हर कोई अपना उल्लू सीधा करने में लगा है…राजनीतिक मोर्चे से जनता निराश है तो योग सिखाते सिखाते कोई बाबा रामदेव उठ कर कहने लगते हैं कि चार सौ लाख करोड़ का काला धन देश में ले आओ तो देश का हर बंदा सुखी हो जाएगा…एक ही झटके में देश की सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी…एक रुपये में पचास डॉलर मिलने लगेंगे…ये सब अव्यावहारिक बातें इसलिए हैं कि क्योंकि हम सरकार को कोसना तो जानते हैं लेकिन वो विकल्प नहीं सुझाते जिसके तहत देश की तस्वीर बदली जाएगी…यही एजेंडा साफ़ न होने की वजह से सारी मुहिम टाएं-टाएं फिस्स हो जाती हैं…
अब जैसी ख़बरें आ रही हैं बाबा रामदेव और सरकार के बीच गतिरोध जल्दी ही टूट जाएगा…कोई सहमति बन जाएगी….सरकार काले धन पर कोई पैनल या कमेटी जैसा कदम उठाएगी…बाबा रामदेव के कारोबारी धंधों पर कहीं से कोई आंच नहीं आएगी…यानि हर एक के लिए विन-विन पोज़ीशन…ठगी रह जाएगी तो फिर वही जनता…
अगर देश का राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार और काबिल होता तो क्यों लोगों को अन्ना हज़ारे या बाबा रामदेव के पीछे लगने की ज़रूरत पड़ती…मुझे अब देश का माहौल सत्तर के दशक जैसा ही नज़र आने लगा है…तब जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया तो पूरे देश को लगा इंदिरा गांधी की सरकार पलटते ही देश में सब कुछ अच्छा अच्छा हो जाएगा…लेकिन उस वक्त भी ये नहीं सोचा गया था कि जो विकल्प आएगा क्या वो वाकई राष्ट्रहित के एजेंडे पर काम करेगा या भानुमति के कुनबे की तरह सिर्फ अपने ही स्वार्थों के लिए मर मिटेगा…हुआ भी यही चौ.चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश और मोराराजी देसाई के हठी स्टाइल ने सब पलीता लगा दिया…तीन साल में ही इंदिरा गांधी की वापसी हो गई…
आज तीन दशक बाद भी स्थिति बदली नहीं है…हर कोई अपने स्वार्थ के पीछे भाग रहा है…ऐसे में राजनीति से इतर कोई व्यक्ति ईमानदारी, नैतिकता, शुचिता की बातें करता है तो लोगों को उस में ही आइकन नज़र आने लगता है…ये ठीक वैसे ही है जैसे सत्तर के दशक में महंगाई, भष्टाचार से हर कोई त्रस्त था, और सिल्वर स्क्रीन पर एंग्री यंगमैन के तौर पर अमिताभ बच्चन को व्यवस्था से लड़ते देखता था तो खूब तालियां बजाता था…हक़ीक़त में जो नहीं हो सकता था, वो उसे पर्दे पर अमिताभ के ज़रिए पूरा होते दिखता था…लेकिन यही अमिताभ राजनीति में आए थे तो क्या हश्र हुआ था, ये इलाहाबाद के लोगों से बेहतर कौन जानता होगा…
क्या लिखूं सोच रहा था और बहुत कुछ लिख गया…हमारे देश का मानव संसाधन आज भी हमारा सबसे बड़ा एसेट है…एक से एक प्रतिभाएं हैं देश में…ज़रूरत है हमें अच्छे नेतृत्व की…टॉप लेवल पर ईमानदार और एक्सपर्ट लोगों का पैनल निगरानी करे और छोटे स्तर पर तस्वीर को बदलने वाली लड़ाइयां हम हर गली मोहल्ले, गांव कस्बे में लड़े, तब ही सूरत में बदलाव सोचा जा सकता है…वरना…वरना क्या…मेरा भारत महान तो है ही….
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