आजकल कोई किसी को रिश्ता नहीं बताता…संयुक्त परिवार रहे नहीं, न्यूक्लियर फैमिलीज़ का चलन है…ऐसे में शादी लायक बेटे-बेटियों के लिए ज़्यादातर अखबार-पत्रिकाओं में मेट्रीमोनियल एड्स, मेट्रीमोनियल वेबसाइट्स या मैरिज ब्यूरो के ज़रिए ही रिश्ते ढूंढे जाते है…लेकिन इस तरह के रिश्तों में लड़के-लड़कियों की खूबियों को बढ़ाचढ़ा कर गिनाया जाता है…खामियों को चतुरता के साथ छुपा लिया जाता है…लेकिन सच्चाई कब तक छुपाई जा सकती है…रिश्ते के बाद भेद खुलते हैं तो तनाव बढ़ता ही जाता है…रिश्ते भी टूटने के कगार पर आ जाते हैं…आख़िर क्यों होता है ऐसा….आज इस का जवाब मैंने स्लॉग ओवर में ढूंढने की कोशिश की है…
स्लॉग ओवर
एक महाशय ने अपने निखट्टू बेटे के लिए अखबार में शादी का एड दिया…’कैप्टन’, ‘एम ए हाफ़’, ‘साहित्य में रूचि रखने वाले’ लड़के के लिए योग्य, सुंदर कन्या चाहिए…
तो जनाब एक अक्ल का अंधा फंस ही गया…अपनी लड़की का रिश्ता महाशय जी के लड़के से कर दिया…
अब शादी के बाद हक़ीकत पता चली तो…
लड़का सेना में नहीं मुहल्ले की कबड्डी टीम का कैप्टन था…
‘एम ए हाफ़’ का मतलब लड़का नवीं फेल था…लड़के के बाप का तर्क था उसने झूठ नहीं बोला था…एम ए करने में आजकल किसी को सत्रह साल लगाने पड़ते हैं….(12+3+2=17)… अब इसका आधा किया जाए तो साढ़े आठ क्लास बैठती है…लड़का नवीं फेल है इसलिए हो गया न ‘एम ए हाफ़’…
लड़के की जिस साहित्य में रुचि थी, अब दिल थाम कर उसका भी नाम सुन लीजिए…सत्यकथा, मनोहर कहानियां, सच्चे किस्से…
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