क्या वाकई फ़ासीवाद की ओर देश?…खुशदीप

लोकसभा चुनाव 2014 के नतीजे आने
से पहले राष्ट्रीय स्तर के एक अख़बार में मेरा लेख प्रकाशित हुआ. तब चुनाव के
दौरान माहौल से ही साफ़ था कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं.
उस वक्त कुछ सुधिजन सवाल करते थे कि कोई
अधिनायकवादी नेता दिल्ली की गद्दी संभालता है तो उसका देश के राजनीतिक
परिदृश्य पर क्या असर पड़ेगा
? विदेश में उसकी कैसी गूंज सुनाई
देगी
?



पहले अपने उसी लेख से कुछ
पंक्तियां यहां अक्षरक्ष
: 

अधिनायकवादी नेता के हाथ में अगर केंद्र की सत्ता की कमान
आती है तो देश किस दिशा में अग्रसर होगा
?  भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा जिस संसदीय जनवाद पर टिकी है, क्या देश उससे इतर नरम फ़ासीवाद की लाइन पकड़ेगा? भारत भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से जितना विशाल और विविध
है
, उसे देखते हुए यहां कठोर
फासीवाद के तत्काल जड़े जमा लेने की संभावना बहुत कम है
. ऐसा कोई भी एजेंडा बहुलतावादी इस देश पर थोपना आसान नहीं है.
हां
, ये ख़तरा ज़रूर है कि केंद्र
में कोई अधिनायकवादी प्रधानमंत्री बनता है और कई राज्यों में उसके कठपुतली मुख्यमंत्री
बनते हैं तो फिर कट्टर फ़ासीवाद भी दूर की कौड़ी नहीं रहेगा. ऐसा माहौल जहां दबंगई
और धौंसपट्टी के ज़रिए शासन चलता है. ऐसी स्थिति
, जहां दक्षिणपंथी एजेंडे से अलग मत रखने वालों के सामने
समर्पण या मौन के सिवा कोई विकल्प ही नहीं बचता
.”
मुझे इस लेख की याद अब क्यों
आई. दरअसल,  तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की
नवनिर्वाचित सांसद महुआ मोइत्रा का लोकसभा में 25 जून को दिया पहला भाषण चर्चा का
विषय बना हुआ है. ये भाषण सोशल मीडिया पर वायरल होने के साथ देश-विदेश में
सुर्खियां बटोर रहा है.
मोइत्रा ने जो कहा, उस पर बाद
में आऊंगा. पहले उनका संक्षिप्त परिचय दे दिया जाए. 2017 लोकसभा चुनाव में महुआ ने
पश्चिम बंगाल के कृष्णानगर लोकसभा क्षेत्र से जीत हासिल की. राजनीति में आने से पहले
मोइत्रा लंदन में प्रख्यात बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंवेस्टमेंट बैंकर थीं. 2009
में नौकरी छोड़कर मोइत्रा भारत आईं और राजनीति से जुड़ गईं. 2016 में पश्चिम बंगाल
की करीमनगर विधानसभा सीट से टीएमसी के टिकट पर ही विधायक बनीं. मोइत्रा टीएमसी के
राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर टीवी डिबेट्स में पार्टी का पक्ष रखती रही हैं.

भाषण में मोइत्रा ने देश के
संविधान को ख़तरे में बताते हुए बांटने की कोशिशों को लेकर सात संकेत गिनाए.

पहले संकेत में मोइत्रा ने कहा, जिस राष्ट्रवाद को आज परोसा और बढ़ावा दिया जा रहा है वो छिछला है और हमारी
राष्ट्रीय पहचान को नोचने वाला है. इसका मकसद जोड़ना नहीं, बांटना है.
मोइत्रा ने दूसरा संकेत
गिनाया कि सरकार के हर स्तर पर मानवाधिकारों की अनदेखी की मंशा नज़र आती है. इसके
लिए उन्होंने बढ़ते हेट क्राइम्स, मॉब लिंचिंग की घटनाओं का हवाला दिया.


तीसरे संकेत में मोइत्रा ने कहा कि देश के
मास मीडिया को कंट्रोल किया जा रहा है. मोइत्रा के मुताबिक इसका इस्तेमाल सत्ताधारी
पार्टी के लिए प्रोपगेंडा फैलाने में हो रहा है और दूसरी तरफ सारे विपक्षी दलों की
कवरेज काट दी जाती है. इसके लिए मोइत्रा ने विज्ञापन को सरकार का हथियार बताया.


चौथे संकेत में मोइत्रा ने देश को अनजाने
ख़ौफ़ में रखा जाना बताया. मोइत्रा के मुताबिक सेना की उपलब्धियों को एक व्यक्ति
के नाम पर भुनाया और इस्तेमाल किया जा रहा है. हर दिन नए दुश्मन गढ़े जा रहे हैं.


मोइत्रा ने पांचवें संकेत
में कहा कि अब इस देश में धर्म और सरकार एक-दूसरे में घुलमिल गए हैं. मोइत्रा ने
कहा कि इस संसद के सदस्य अब 2.77 एकड़ ज़मीन (राम जन्मभूमि के संदर्भ में) के
भविष्य को लेकर चिंतित हैं
, न कि भारत की बाकी 80 करोड़
एकड़ ज़मीन को लेकर.


छठे संकेत में मोइत्रा ने बुद्धिजीवियों
और कला के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए तिरस्कार, विरोध और असमहति को दबाना,
साइंटिफिक टेम्परामेंट के विपरीत स्कूली सिलेबस से छेड़छाड़ आदि को गिनाया.
मोइत्रा के मुताबिक ये देश को अतीत के अंधेरे की ओर ले जाना है.


सातवें और आख़िरी संकेत में मोइत्रा ने चुनाव तंत्र की
आज़ादी घटने का उल्लेख किया. इसके लिए मोइत्रा ने चुनाव पर होने वाले बेतहाशा खर्च
(खास तौर पर सत्ताधारी पार्टी की ओर से) को गिनाया.
मोइत्रा ने 2017 में अमेरिका के
होलोकास्ट मेमोरियल म्यूजियम की मुख्य लॉबी में लगे एक पोस्टर का भी हवाला दिया.
इस पोस्टर में फासीवाद आने के शुरुआती संकेतों को दर्शाया गया था. मोइत्रा के
मुताबिक जिन सात संकेतों को उन्होंने अपने भाषण में गिनाया वो उस पोस्टर का भी
हिस्सा थे. ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वो पोस्टर अब भी होलोकॉस्ट
मेमोरियल म्यूज़ियम या उसकी गिफ़्ट शॉप में लगा है या नहीं. 2017 में पोस्टर की
तस्वीर किसी यूज़र की ओर से ट्विटर पर शेयर किए जाने की वजह से ये चर्चा में आया.

उस पोस्टर में फासीवाद के
शुरुआती संकेत जो बताए गए वो थे- ताकतवर और सतत राष्ट्रवाद, मानवाधिकारों की
अनदेखी, समान कारण के लिए शत्रुओं की पहचान, सेना का प्रभुत्व, व्यापक लैंगिकवाद,
नियंत्रित मास मीडिया, राष्ट्रीय सुरक्षा की धुन, धर्म और सरकार का आपस में गूंथा
होना, कॉरपोरेट ताकत का संरक्षण, श्रम ताकत को दबाना, बुद्धिजीवियों और कला का तिरस्कार,
अपराध और दंड की सनक.
ज़ाहिर
है पोस्टर में फ़ासीवाद के जो कारण गिनाए गए वो कोई हाल-फिलहाल में सामने नहीं आए.
ये पुरानी लिस्ट है जो अब सबके सामने है.
फ़ासीवाद या मेजोरिटेरियनिज़म में यही माना
जाता है कि हम जो सोचते हैं वही सही है बाक़ि सब ग़लत. यानि बहुसंख्यकवाद का
प्रभुत्व.
मोइत्रा ने जो अपने भाषण में कहा
सोशल मीडिया पर उसे कुछ यूजर्स ने उसे
स्पीच ऑफ द ईयरबताया. मोइत्रा मोदी सरकार पर तीखे प्रहार करने में मुखर
रहीं. ये भी सच है कि उन्होंने जो भी कहा, उसमें कुछ हद तक देश की सच्चाई भी है.
लेकिन मोइत्रा जिस टीएमसी का प्रतिनिधित्व करती है उसी का बंगाल में राज है. ममता
बनर्जी के शासन वाले बंगाल में टीएमसी का सिंडीकेट फलने फूलने और प्रोटेक्शन मनी वसूले
जाने के आरोप सामने आते रहे हैं. पॉन्जी स्कीम घोटाले भी टीएमसी के शासन में हुए.
मोइत्रा संसद में पहली बार
बोलीं, बहुत अच्छा बोलीं. लेकिन उन्हें अपनी पार्टी में भी ये आवाज़ उठानी चाहिए
कि हमें केंद्र सरकार के खिलाफ बोलने का पूरा नैतिक आधार तभी होगा जब हम बंगाल में
आदर्श शासन व्यवस्था की मिसाल पूरे देश के सामने पेश करें.
मां, माटी और मानुष के जिस नारे  को आगे कर ममता लेफ्ट के ज़मींदोज़ शासन को
उखाड़ कर बंगाल की सत्ता में आई, उस नारे को पूरी तरह हक़ीक़त में भी बदल कर
दिखाएं.
आख़िर में उसी बात पर आता हूं,
जहां से इस लेख की शुरुआत की थी. क्या अब वाकई भारत में नरम फ़ासीवाद जैसे हालात
बन रहे हैं.
एक देश, एक चुनावक्या उसी दिशा में बढ़ाया जाने वाला कदम है? पांच साल पहले मैंने यही लिखा था कि संघवाद के चलते फ़ासीवाद के
देश में सिर उठाने की संभावना कम ही है. ये तभी संभव हो सकता है कि केंद्र के साथ
करीब करीब सभी राज्यों में एक ही पार्टी या गठबंधन की सरकार स्थापित हो जाएं.



 ऐसे
में राज्यों में कठपुतली मुख्यमंत्री होने की वजह से किसी भी एजेंडे को लागू करना
बाएं हाथ का खेल हो जाएगा. हां जब तक कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों या विरोधी विचारधाराओं
की सरकारें हैं और राज्यसभा में विपक्ष का हाथ ऊपर है, केंद्र में सत्तारूढ पार्टी
के लिए अपना एजेंडा थोपना टेढ़ी खीर ही रहेगा. हां, जिस दिन इन बाधाओं को भी साध
लिया जाएगा तो कट्टर फ़ासीवाद भी दूर की कौड़ी नहीं रहेगा.